शुक्रवार, 28 दिसंबर 2012

चतुर्थ अध्याय : चन्द्रग्रहणाधिकारः

सूर्यबिम्ब व्यास का प्रमाण 6500 योजन तथा चन्द्रबिम्ब व्यास का प्रमाण 480 योजन है।
इनके व्यास को अपनी अपनी स्पष्टागति से गुणाकर उसमें अपनी अपनी मध्यमागति से भाग देने पर इनके स्पष्ट बिम्बव्यास होते हैं। स्पष्ट सूर्यबिम्ब व्यास को रविभगण (4320000) से गुणाकर चन्द्रभगण (57753336) से भाग दें, प्राप्त मध्यम मान = 6500×432000/57753336 = 486 हुआ। अथवा
चन्द्रकक्षा से गुणाकर सूर्यकक्षा से भाग दें। प्राप्त लब्धि चन्द्रकक्षा में अथवा चन्द्राधिष्ठित आकाशगोल में स्पष्ट सूर्यबिम्ब व्यास होता है। स्पष्ट सूर्यव्यास (486) और चन्द्रव्यास (480) में 15 का भाग देने से चन्द्रकक्षा में सूर्य (32.4) और चन्द्र (32) के कलादि व्यासमान होते हैं। कोष्ठकों में सभी मान मध्यम हैं।
स्पष्टचन्द्रगति को भूव्यास से गुणाकर मध्यमचन्द्र गतिकला से भाग देने पर प्राप्त लब्धि सूची होती है। सूर्य के स्पष्ट योजनात्मक बिम्ब (मध्यम 6500) में भूव्यास (1600) को घटाएं। (शेष = 6500 - 1600 = 4900)
शेष को चन्द्र के मध्यम योजनात्मक बिम्बव्यास (480) से गुणाकर सूर्य के मध्यम योजनात्मक बिम्बव्यास (6500) से भाग देने पर जो लब्धि (361.85 = 362) प्राप्त हो उसको पूर्वसाधित सूची (मध्यम 1600) में घटाने से शेष (1600-362=1238) तमोमय भूछाया होती है। इस भूछाया को पूर्वोक्त प्रकार से कलात्मक करना चाहिये। (=1238/15 = 83)
सूर्य से 6 राशि के (180°) को अन्तर में भूछाया भ्रमण करती है। सूर्य के तुल्य अथवा छः राशि युक्त रवि के तुल्य या उससे कुछ न्यूनाधिक अंशों पर चन्द्रपात होने से ग्रहण होता है।
अमान्तकाल में सूर्य और चन्द्रमा के राश्यादि अवयव समान होते हैं। तथा पूर्णिमा के अन्त में सूर्य और चन्द्र के परस्पर 6 राशि के अन्तर पर रहने से इनके मात्र अवयवादि तुल्य होते हैं।
पर्व के दिन जिस काल में सूर्य और चन्द्रमा स्पष्ट किये गये हों उसके और अमान्त अथवा पूर्णिमान्त के बीच में जितनी गत-गम्य घटी हों उनका "इष्टनाडीगुणाभुक्तिः" इत्यादि प्रकार से जो फल प्राप्त हो उसको गत-गम्य घटिकाओं में क्रम से सूर्य और चन्द्रमा में हीन और युत करने से समकल होते हैं और पात में विलोम संस्कार करने से तात्कालिक पात होता है।
सूर्य से नीचे स्थित चन्द्रमा मेघ की तरह सूर्य का आच्छादक होता है। पूर्वाभिमुख भ्रमण करता हुआ चन्द्रमा भूछाया में प्रवेश करता है। जिससे चन्द्रग्रहण होता है।
छाद्य (चन्द्रग्रहण में चन्द्र, व सूर्यग्रहण में सूर्य) व छादक (चन्द्रग्रहण में भूछाया, व सूर्यग्रहण में चन्द्र) के बिम्ब-मानैक्यार्ध में तात्कालिक चन्द्रशर घटाने से शेष ग्रास प्रमाण होता है। (भूछाया+चं.वि.)/2-चं.श.=चं.ग्रा., (र.वि.+चं.वि.)/2-चं.श.=र.ग्रा.
ग्राह्यमान (च.विं.) से ग्रासमान अधिक हो तो सम्पूर्ण ग्रहण और न्यून हो तो न्यून (खण्ड) ग्रहण होता है। मानैक्यार्ध से शर अधिक होने पर ग्रहण सम्भव नहीं होता है।
छाद्य और छादक बिम्बों के योग और अन्तर को पृथक्-पृथक् आधा कर उनमें से शर का वर्ग घटाकर शेष दोनों का वर्गमूल लें।  {(भूछाया+चं.वि.)/2-चं.श.2},                              {(भूछाया-चं.वि.)/2-चं.श.2
इन दोनों वर्गमूलों को 60 से गुणाकर सूर्य और चन्द्र के गत्यन्तर से भाग देने पर घटिकादि फल क्रम से स्थित्यर्ध व विमर्दार्ध होते हैं। स्थित्यर्ध =60×{(भूछाया+चं.वि.)/2-चं.श.2}/(चं.ग.-र.ग.) , विमर्दार्ध =60×{(भूछाया-चं.वि.)/2-चं.श.2}/(चं.ग.-र.ग.) 
सूर्य, चन्द्र और पात की गतियों को पृथक-पृथक स्थित्यर्धघटिकाओं से गुणाकर 60 का भाग देने से जो कलादि फल प्राप्त हो, उसको सूर्य और चन्द्र में घटाने से स्पर्शस्थित्यर्ध व जोड़ने से मोक्षस्थित्यर्ध होता है। पात में विलोम क्रियायें करनी चाहिये। इस प्रकार तात्कालिक चन्द्र और पात से पूर्वोक्तरीति से शर साधन कर स्पर्शस्थित्यर्ध और मोक्षस्थित्यर्ध का साधन करें। इस प्रकार असकृत् कर्म (iteration) करने से स्पर्शस्थित्यर्ध और मोक्षस्थित्यर्ध स्पष्ट होंगे। इसी प्रकार स्पर्शमर्दार्ध और मोक्षमर्दार्ध का भी साधन करना चाहिए।
स्पष्टतिथ्यन्तकाल में मध्यग्रहण होता है। स्पष्ट तिथ्यन्तकाल में स्पर्शस्थित्यर्धघटिका घटाने से स्पर्श काल तथा मोक्षस्थित्यर्धघटिका जोड़ने से मोक्षकाल होता है।
सम्पूर्ण ग्रहण में, स्पष्टतिथ्यन्तकाल में स्पर्शमर्दार्ध घटी को हीन और मोक्षमर्दार्ध घटी को युत करने से क्रमशः सम्मीलन और उन्मीलन होते हैं।
इष्ट घट्यादि मान को स्पर्शस्थित्यर्ध घट्यादि में घटाने से जो शेष रहें उनको सूर्य-चन्द्र के गत्यन्तर से गुणाकर 60 का भाग देने पर, फल कोटिकला होती है। यहाँ ग्रहण के आरम्भ से मध्यग्रहण पर्यन्त इष्टघटिका होती है।
सूर्यग्रहण में पूर्वोक्त प्रकार से साधन की हुई कोटिकलाओं को मध्यस्थित्यर्ध से गुणाकर स्पष्टस्थित्यर्ध का भाग देने से फल स्पष्टकोटिकला होती है।
भुज अर्थात् तात्कालिक शर तथा पूर्वोक्त प्रकार से साधन की हुई कोटि इन दोनों के वर्गयोग का वर्गमूल कर्ण होता है, इस कर्ण को मानैक्यार्ध में घटाने से इष्टकालिक ग्रासमान होता है।
मध्यग्रहण से आगे इष्टघट्यादि को मोक्षस्थित्यर्ध में घटाने से जो शेष हो उसे गत्यन्तर से गुणाकर 60 का भाग देने से कोटिकला प्राप्त हेती है। इससे पूर्व प्रकार से कर्ण लाकर कर्ण को मानैक्यार्ध में घटाने से शेष इष्टग्रास होता है।
मानैक्यार्धखण्ड में इष्टग्रास को घटाकर शेष के वर्ग में तात्कालिक शर का वर्ग घटाकर, शेष का वर्गमूल लेने से चन्द्रग्रहण में कोटिलिप्ता होती है।
सूर्यग्रहण में इसप्रकार से प्राप्त कोटिकला को स्पष्टस्थित्यर्ध से गुणाकर मध्यस्थित्यर्ध का भाग देने से प्राप्त लब्धि स्पष्ट कोटिकला होती है। इन कोटिकलाओं को 60 से गुणाकर सूर्य-चन्द्र के गत्यन्तर का भाग देने से प्राप्त घटिकादि लब्धि स्वकीय स्थित्यर्ध में घटा देने से शेष इष्टग्रास घटिका होती है।
सूर्यग्रहण में सूर्य की नतकालज्या को तथा चन्द्रग्रहण में चन्द्र की नतकालज्या को स्वदेशीय अक्षज्या से गुणाकर त्रिज्या से भाग देने से प्राप्त लब्धि का चाप पूर्व-पश्चिम नतज्या के क्रम से उत्तर-दक्षिण आक्षवलन होता है।
तीन राशि युक्त ग्रह की क्रान्ति के तुल्य आयनवलन होता है। इन दोनों की एक दिशा होने पर योग तथा भिन्न दिशा होने पर अन्तर करने से स्पष्टवलन होता है। स्पष्टवलनज्या में 70 का भाग देने से अंगुलादि वलन होता है।
दिनमान, दिनार्धमान और उन्नत घटिकाओं के योग में दिनमान के आधे का भाग देने से जो फल प्राप्त हो उससे पूर्व साधित विक्षेपकादिकों में भाग देने से लब्ध फल उन विक्षेपादिकों के अंगुलादि मान होते हैं।

तृतीय अध्याय : त्रिप्रश्नाधिकारः


जल के द्वारा संशोधित पत्थर की शिलातल पर अथवा वज्रलेप (सीमेंट या अन्य मसालों) से बने समतल चबूतरे पर शङ्कु के अनुसार अर्थात् 12 अङ्गुल के अर्धव्यास से वृत्त बनावें।
उस वृत्त के मध्य में 12 अङ्गुल का एक शङ्कु स्थापित करें। इस शङ्कु का छायाग्र वृत्तपरिधि को पूर्वाह्न तथा अपराह्न में जहाँ स्पर्श करे उन स्थानों पर बिन्दु बनावें। ये दोनों बिन्दु पूर्वापर ( पूर्व और पश्चिम) संज्ञक होते हैं।
इन दोनों बिन्दुओं के मध्य में तिमि (चापों) द्वारा दक्षिणोत्तर रेखा का निर्माण करना चाहिये।
याम्योत्तर (दक्षिणोत्तर) रेखा के बीच तिमि (चापों) द्वारा पूर्वापर रेखा का निर्माण कर दोनों रेखाओं के मध्य में विदिशाओं (45 अंश पर) का निर्माण करना चाहिये।
वृत्त परिधि स्थित प्रत्येक दिशा के मध्य बिन्दु से जाने वाली स्पर्श रेखाओं से वृत्त के बाहर एक चतुर्भुज का निर्माण करें। चतुर्भुज के पूर्व अथवा पश्चिम बिन्दु से गणितागत दिशा में छायाग्र-पूर्वापर सूत्रों के अन्तर तुल्य, भुजसूत्र का अङ्गुलात्मक मान, पूर्वापर रेखा से इष्टकालिक छायाग्र बिन्दु का मान होता है। अर्थात् छाया की विरुद्ध दिशा में छायाग्रान्तर तुल्य सूर्य का दिगंश होता है।
पूर्व एवं पश्चिम बिन्दु से संलग्न पूर्वापर रेखा सममण्डल (पूर्वापर वृत्त) के धरातल में होती है। ऐसा दैवज्ञों का मत है। वही पूर्वापर रेखा उन्मण्डल में तथा विषुवत् वृत्त के धरातल में (समानान्तर) भी होती है।
पूर्वापर सूत्र के समानान्तर पलभाग्र बिन्दु से जाने वाली रेखा और इष्ट छायाग्र बिन्दु का अन्तर अग्रा होता है। यहाँ पलभा = 12 tan φ (जहाँ φ स्थान का अक्षांश है) और अग्रा = 12(sin दिगंश - tan φ)। कर्णवृत्त में परिणत करने पर इसे कर्णवृत्ताग्रा कहते हैं।

छाया यन्त्र

शङ्कु और छाया के वर्ग योग का वर्गमूल कर्ण होता है। कर्ण वर्ग से शङ्कु वर्ग को घटाकर शेष का वर्गमूल छाया तथा इससे विपरीत कर्ण वर्ग से छाया वर्ग को घटाकर शेष का वर्गमूल शङ्कु होता है।
एक महायुग में नक्षत्र चक्र तीस बार बीस अर्थात् 600 बार पूर्व दिशा में परिलम्बित होता है। 600 से अहर्गण को गुणा कर गुणनफल में युग सावन दिन संख्या से भाग देने पर प्राप्त लब्धि का भुज बनावें। अर्थात् भुज = 3438 sin (600 × 360 × अहर्गण / युगसावनदिन) = 3438 sin (0.00013689×अहर्गण)
इस भुज में 3 से गुणा कर 10 का भाग देने से अयनांश होता है। इस अयनांश संस्कृत ग्रह (सायन ग्रह) द्वारा क्रान्ति, छाया, चरखण्ड आदि का साधन करना चाहिये।
दोनों अयन बिन्दुओं (सायन कर्क एवं सायन मकर) तथा दोनों विषुव बिन्दुओं (सायन मेष और सायन तुला) पर सूर्य के संक्रमण (संक्रान्ति) के समय अयन चलन की गति स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। छायार्क से गणितागत सूर्य अल्प होने पर अन्तरांश तुल्य सम्पात से भचक्र पूर्व की और चला है।
और यदि गणितागत सूर्य का भोगांश अधिक है तो अन्तरांश तुल्य नक्षत्र चक्र पश्चिम दिशा में चला है ऐसा समझें। इस प्रकार अपने-अपने देश (स्थान) में मध्याह्न काल की विषुवच्छाया को लें।
यह विषुवच्छाया दक्षिणोत्तर रेखा पर पड़ेगी। इसे ही पलभा कहते हैं। शङ्कु (12 अङ्गुल) और शङ्कुच्छाया (12 tan φ) से पृथक्-पृथक् त्रिज्या (3438) को गुणाकर गुणनफल को पलकर्ण {(122 + 122 tan2 φ) = 12 sec φ} से भाग दें।
प्राप्त फल क्रमशः लम्बज्या (3438 cos φ) और अक्षज्या (3438 sin φ) होती है। इनके चापीय मान (arcsin) क्रमशः लम्बांश (90 - φ) और अक्षांश (φ) होते हैं। उत्तर गोल में अक्षांश सदैव दक्षिण होते हैं। मध्याह्न काल में सूर्य की छाया {12 tan (φ ± d) भुज संज्ञक होती है, इसे त्रिज्या (3438) से गुणा करें।
गुणनफल में मध्याह्नकालिक छायाकर्ण {12 sec (φ ± d)} से भाग देने पर जो प्राप्त लब्धि {3438 sin (φ ± d) की चाप कला मध्याह्नकालिक नतांश (φ ± d) होता है। यदि छाया पूर्वापर सूत्र से दक्षिण हो तो उत्तर नतांश और यदि उत्तर दिशा में हो दक्षिण नतांश होता है।
यदि सूर्य की क्रान्ति कला (d) और नतांश (φ - d) में परस्पर दिग्भेद हो तो दोनों का योग करने से तथा यदि दोनों की एक ही दिशा होने पर (नतांश = φ + d) अन्तर करने से अक्षलिप्ता (अक्षांश कला, φ) होती है। उक्त अक्षांश से अक्षज्या (3438 sin φ) साधित कर उसके वर्ग को त्रिज्या (3438) के वर्ग में घटाकर शेष का वर्गमूल लेने से लम्बज्या (3438 cos φ) होती है।
अक्षज्या (3438 sin φ) को 12 से गुणाकर लम्बज्या (3438 cos φ) से भाग देने पर लब्ध फल पलभा (12 tan φ) होती है। स्वदेशी अक्षांश (φ) और नतांश (φ - d) यदि एक दिशा के हों (d < φ) तो अन्तर, यदि भिन्न दिशा के हों (नतांश = d - φ, d > φ) तो योग करने से मध्याह्न काल में सूर्य की क्रान्ति (d) होती है।
क्रान्तिज्या (3438 sin d) को त्रिज्या (3438) से गुणाकर परमक्रान्तिज्या (3438 sin e) से भाग देने से जो लब्धि (3438 sin l, अर्थात् sin l = sin d / sin e) प्राप्त हो उसका चाप मेषादि तीन राशियों में सायन सूर्य होता है।
कर्कादि तीन राशियों में लब्धि को छः राशि से घटाने से, तुलादि तीन राशियों में छः राशि में जोड़ने से तथा मकरादि तीन राशियों में द्वादश से घटाने पर शेष मध्याह्न कालिक स्पष्ट सायन सूर्य होता है।
गणितागत स्फुट सूर्य से मन्दफल का साधन कर उसका स्पष्ट सूर्य में विलोम संस्कार करें पुनः संस्कृत सूर्य से मन्दफल साधन कर स्पष्ट सूर्य में विलोम संस्कार करें। इस प्रकार असकृत् (बार-बार) संस्कार करने से अहर्गणोत्पन्न मध्यम सूर्य होता है। अक्षांश (φ) और सूर्य के क्रान्त्यंशों (d) की एक दिशा होने पर योग (φ + d) एवं भिन्न दिशा होने पर अन्तर (φ - d) करने से सूर्य का मध्याह्नकालिक नतांश (90 - z) होता है।
नतांशों को 90 में घटाने पर उन्नतांश (z) होते हैं। नतांशों की भुजज्या (3438 sin z) को दृग्ज्या कहते हैं और उन्नतांशों की ज्या (3438 cos z) को कोटिज्या या महाशङ्कु कहते हैं। शङ्कु के अङ्गुलात्मक मान 12 से क्रमशः भुजज्या व त्रिज्या को गुणा करें।
गुणनफल में कोटिज्या का भाग देने पर क्रमशः मध्याह्नकालिक छाया (12 tan z) तथा मध्याह्नकालिक छायाकर्ण (12 × 3438 / 3438 cos z = 12 sec z) होता है। क्रान्तिज्या (3438 sin d) को पलकर्ण (12 sec φ) से गुणाकर द्वादश का भाग देने से अर्काग्रा (3438 sin d / cos φ) होती है। 
इस अर्काग्रा को इष्टकालिक छायाकर्ण (12 sec z) से गुणाकर मध्यकर्ण अर्थात् त्रिज्या (3438) से भाग देने पर स्वकर्णाग्रा (12 sin d / cos φ cos z) होती है। दक्षिणगोल में कर्णाग्रा और पलभा का योग करने से तथा उत्तर गोल में पलभा में कर्णाग्रा को घटाने से शेष उत्तर भुज होता है। [अतः उत्तर भुज = 12(tan φ - sin d / cos φ cos z)]
यदि पलभा में कर्णाग्रा न घटे तो कर्णाग्रा में पलभा को घटाने से शेष दक्षिण भुज होता है। पूर्वापर सूत्र और छायाग्र के बीच में भुज होता है।
मध्याह्नकालिक भुज ही सदैव मध्याह्नकालिक छाया होती है। लम्बज्या (3438 cos φ) और अक्षज्या (3438 sin φ) को क्रम से पलभा (12 tan φ) और द्वादश से गुणाकर क्रान्तिज्या (3438 sin d) का भाग देने से प्राप्त लब्धियाँ सममण्डल छायाकर्ण (12 sin φ / sin d) होती हैं।
जब सूर्य की उत्तरा क्रान्ति अक्षांशों से अल्प होती है तभी सममण्डलगत सूर्य का छायाकर्ण होता है क्योंकि उसी स्थिति में सूर्य सममण्डल में प्रवेश करेगा। दक्षिणक्रान्ति होने पर अथवा अक्षांशों से क्रान्ति अधिक होने पर स्वक्षितिज के ऊपर सूर्य का सममण्डल में प्रवेश सम्भव नहीं होता।
प्रकारान्तर से सममण्डल कर्ण का साधन, मध्याह्न कर्ण (12 sec z) को पलभा (12 tan φ) से गुणाकर मध्याग्रा (12 sin d / cos φ cos z) का भाग करके (12 sin φ / sin d) होता आया है। इष्टक्रान्तिज्या (3438 sin d) को त्रिज्या (3438) से गुणाकर लम्बज्या (3438 cos φ) का भाग देने से अग्राज्या (3438 sin d / cos φ) होती है।
अग्रा (3438 sin d / cos φ) को अभीष्ट कालिक छायाकर्ण (12 sec z) से गुणाकर त्रिज्या (3438) से भाग देने पर लब्धि अङ्गुलादि कर्ण वृत्तीय अग्रा (12 sin d / cos φ cos z) होती है। त्रिज्या वर्ग के आधे (3438 × 3438 / 2) से अग्रा का वर्ग (3438 × 3438 sin2 d / cos2 φ) घटाकर शेष को 12 से गुणा करें।
गुणनफल में पुनः 12 का गुणाकर शङ्कु वर्ग के आधे, अर्थात् 72 से युत पलभा वर्ग (72 + 144 tan2 φ) से भाग दें।
यह प्राप्त लब्धि {34382 (cos2 φ - 2 sin2 d) / (1 + sin2 φ)} करणी संज्ञक होती है। इसे अलग रखें। 12 गुणित पलभा (144 tan φ) को अग्रा (3438 sin d / cos φ) से गुणा करें।
गुणनफल को पूर्वोक्त हर (72 + 144 tan2 φ) से भाग देने पर प्राप्त लब्धि {3438 sin d sin φ / (1 + sin2 φ)} फल संज्ञक होती है। फल के वर्ग में करणी जोड़कर वर्गमूल लें। इस मूल में दक्षिण गोल में फल घटाने से तथा उत्तर गोल में फल जोड़ने से कोण शङ्कु सिद्ध होता है। 3438 √{cos2 f (1 +  sin2 f) - sin2 d (2 + sin2 f)}/(1 + sin2 f) ± 3438 sin d sin f /(1 + sin2 f)

दण्ड की छाया व उसके अनुरूप बनने वाले समकोण त्रिभुज


याम्योत्तर सूर्य के भ्रमण करने पर अग्नि, नैऋत्य, ईशान और वायु कोण का यह शङ्कु होता है।
कोणशङ्कु और त्रिज्या के वर्गान्तर के वर्गमूल को 'दृग्ज्या' (3438 sin z) कहते हैं। दृग्ज्या और त्रिज्या को पृथक्-पृथक् 12 से गुणाकर कोणशङ्कु से भाग दें।
प्राप्त लब्धि, सूर्य की स्थिति एवं काल के अनुसार कोणवृत्त में क्रमशः छाया (12 tan z) और छायाकर्ण (12 sec z) होता है। उत्तर गोल में त्रिज्या (3438) में चरज्या (3438 cos C) जोड़ने से और दक्षिण गोल में त्रिज्या में चरज्या घटाने से अन्त्या {3438(1 + cos C)} होती है।
अन्त्या में नतकाल की उत्क्रमज्या {3438(1 - cos z)} घटाने से शेष, इष्टान्त्या      3438(cos C + cos z) होती है। इष्टान्त्या को अपने अहोरात्रवृत्त के व्यासार्ध (द्युज्या) से गुणाकर त्रिज्या का भाग देने से छेद (इष्ट हृति) (3438 cos z / cos f) होता है। छेद को लम्बज्या (3438 cos φ) से गुणा करें।
इसमें त्रिज्या को भाग देने से शङ्कु (3438 cos z) होता है। शङ्कु के वर्ग को त्रिज्या के वर्ग में घटाकर वर्गमूल लेने से दृग्ज्या (3438 sin z) होती है। पूर्वोक्त रीति से साधित शङ्कु और दृग्ज्या से छाया और छायाकर्ण का साधन होता है।
इष्टकालिक छाया (12 tan z) से त्रिज्या (3438) को गुणाकर छायाकर्ण (12 sec z) का भाग देने से लब्धि दृग्ज्या (3438 sin z) होती है। त्रिज्या वर्ग में इस दृग्ज्या का वर्ग घटाकर वर्गमूल लेने से शङ्कु (3438 cos z) होता है।
शङ्कु को त्रिज्या से गुणाकर स्वलम्बज्या (3438 cos φ) का भाग देने पर इष्ट हृति या छेद (3438 cos z / cos φ) होता है। इस छेद को त्रिज्या से गुणाकर अपने अहोरात्र के व्यासार्ध से भाग देने से उन्नतज्या या इष्टान्त्या 3438(cos C + cos z) होती है।
इस इष्टान्त्या को स्वकीय अन्त्या में घटाने से शेष नतकाल की उत्क्रमज्या 3438(1-cos z) होती है। उत्क्रमज्या पिण्डों से चाप करने से नतासु (90-z) होते हैं। ये पूर्वाह्नकालिक इष्टछाया में पूर्व कपाल में तथा अपराह्न कालिक इष्टछाया में पश्चिम कपाल में नतासु होते हैं।
इष्टकालिक कर्णवृत्ताग्रा (12 sin d / cos f cos z) को लम्बज्या (3438 cos f) से गुणाकर तात्कालिक छायाकर्ण (12 sec z) से भाग देने पर इष्टक्रान्तिज्या (3438 sin d) होती है। इष्टक्रान्तिज्या को त्रिज्या से गुणाकर परमक्रान्तिज्या (3438 sin e) सा भाग देने पर इष्टभुजज्या (3438 sin l) होती है। (sin l = sin d / sin e)
इसका चाप राश्यादि इष्टभुज (l) होता है। इस भुज (क्षेत्र) से उत्पन्न सायन रवि चारों पादों में होगा। इष्टदिन के पूर्वाह्ण या अपराह्ण में या मध्यकाल में स्थापित शङ्कु की छायारूप तीन भुजाओं पर चिह्न अंकित करें।
अव्यवहित दो दो चिह्नों से दो मत्स्य बनाकर उनके मुखपुच्छगत रेखा (line bisectors) करें। फिर मुखपुच्छगत रेखाओं को अपने मार्ग में बढ़ाने से जहाँ संपात हो उस सम्पातबिन्दु को केन्द्र मानकर सम्पातबिन्दु और किसी भुजाग्रबिन्दु के अन्तर के तुल्य त्रिज्या से जो वृत्त बनेगा वह तीनों भुजाग्रचिह्नों को स्पर्श करता हुआ जायेगा। यही भाभ्रमवृत्त है, इसी वृत्त में शङ्कु की छाया भ्रमण करेगी। तीन राशियों की ज्या (3438 sin 30°=1719, 3438 sin 60°=2977 , 3438 sin 90°=3438) को अलग अलग तीन राशि की द्युज्या अर्थात् परमाल्पद्युज्या (cos e) से गुणाकर स्वद्युज्या (cos d) से भाग दें।
प्राप्त लब्धियों का चाप बनाकर क्रमशः अधोऽधः घटाने से मेषादि राशियों के उदयमान होते हैं।
पूर्वसाधित लङ्कोदयासुओं में अपने देश के चरासु घटाने से तत्तद् राशियों के स्वदेशोदयासु होते हैं।
मेषादि तीन राशियों के लङ्कोदयासुओं को विलोम क्रम से रखकर उनमें मेषादि राशियों के चरखण्डों को विपरीत क्रम से जोड़ने पर कर्क आदि तीन राशियों के उदयासु होंगे। मेषादि छः राशियों के उदयासु ही उत्क्रमगणना से तुलादि छः राशियों के उदयासु होते हैं।
तात्कालिक सायन सूर्य के गतासु या भोग्यासु बनाकर, जिस राशि पर सूर्य हो उस राशि के उदयासुओं से गुणाकर 30 (ख-वह्निभिः) का भाग देने से क्रमशः गत और भोग्य असु होते हैं।
इष्ट घटिकाओं के असुओं में भोग्यासुओं को घटाकर आगे की राशियों के उदयासुओं को भी जहाँ तक घट सके घटाएं। जिस राशि के उदयासु नहीं घट सकें उनको अशुद्ध कहते हैं।
घटाने से बचे शेष को 30 से गुणाकर अशुद्ध का भाग देने से जो अंशादि फल मिले उनको अशुद्ध से पूर्व जितनी मेष आदि राशियाँ हों उनमें जोड़ने से अथवा घटाई हुई राशि तथा अंशादिकोँ के इस अंशादि फल में जोड़ने से तात्कालिक उदय लग्न होता है।
पूर्व-पश्चिम नत घटिका और तात्कालिक सायन सूर्य से लग्नायन की भाँति लङ्कोदयासुओं से साधन करने से जो राश्यादिक फल प्राप्त हो उसको सूर्य में ऋण-धन (पूर्व नत हो तो ऋण, पश्चिम नत हो तो धन) करने से मध्यलग्न (दशम लग्न) होगा।
लग्न और सूर्य के बीच में जो अल्प हो उसके भोग्यासु तथा जो अधिक हो उसके भुक्तासु साधन कर इन दोनों के योग में अन्तर लग्नासु अर्थात् लग्न और सूर्य के बीच में जितनी राशियाँ हों उनके उदयासुओं को जोड़ने से इष्टकाल होता है।
स्पष्ट सूर्य से लग्न न्यून हो तो रात्रि शेष में अर्थात् सूर्योदय से पूर्व का इष्टकाल होगा और अधिक हो तो दिन में अर्थात् सूर्योदय के पश्चात् दिन का इष्टकाल होगा। यदि छः राशियुक्त सूर्य से अधिक लग्न हो तो सूर्यास्त के अनन्तर रात्रि का इष्टकाल होगा।

मंगलवार, 11 दिसंबर 2012

द्वितीय अध्याय : स्पष्टाधिकारः





भगण (क्रान्तिवृत्त) पर आश्रित शीघ्रोच्च, मन्दोच्च एवं पात संज्ञक काल की अदृश्य मूर्तियाँ ग्रहों की गति का कारण होती है, अर्थात् इन्हीं अदृश्य मूर्तियों के कारण ग्रहपिण्डों में गति उत्पन्न होती है।

इन शीघ्रोच्च, मन्दोच्च एवं पात संज्ञक अदृश्य शक्तियों की वायुरूपी रस्सी से बँधे हुए ग्रह उन्हीं शक्तियों द्वारा वामदक्षिणहस्त से अपनी दिशा में अपने समीप अपकृष्ट होते (खींच लिये जाते) हैं।

प्रवह नामक वायु ग्रहों को उनके उच्च स्थानों की ओर प्रेरित करती है। पूर्व और पश्चिम की ओर खिंचे हुए ग्रहों की भिन्न-भिन्न गति होती जाती है।

ग्रहों का उच्च संज्ञक स्थान यदि पूर्व दिशा में 180° से अल्प दूरी पर हो तो ग्रह को पूर्व दिशा में तथा यदि पश्चिम दिशा में हो तो पश्चिम दिशा में खींच लेता है।

अपने अपने उच्च स्थानों से अपकृष्ट ग्रह अपने मध्यम स्थान से जितने राश्यादि तक पूर्व दिशा में जाते हैं उतने राश्यादि मान (उच्चाकर्षण फल) मध्यम ग्रह में जोड़े जाते हैं अतः इसे धन संस्कार कहते हैं तथा पश्चिम दिशा में उच्चाकर्षण फल घटाया जाता है अतएव उसे ऋण संस्कार कहते हैं।

इसी प्रकार राहु नामक पात भी क्रान्त्यन्त बिन्दु से ग्रह को अत्यन्त वेग से उत्तर और दक्षिण दिशा में विक्षेप तुल्य दूरी तक विक्षिप्त करता है।

यदि पातस्थान ग्रह से पश्चिम दिशा में 6 राशि से अल्प दूरी पर होता है तो ग्रह को उत्तर दिशा में और यदि पूर्व दिशा में 6 राशि से अल्प दूरी पर होता है तो ग्रह को दक्षिण दिशा में आकर्षित कर लेता है।

बुध और शुक्र के शीघ्रोच्चों से इनके पात पूर्वोक्त नियमानुसार पूर्व दिशा में यदि 6 राशि से अल्प दूरी पर हों तथा पश्चिम दिशा में भी 6 राशि से अल्प हों तो क्रम से उत्तर एवं दक्षिण में आकर्षित करता है।

सूर्य का विम्बमान बृहद होने से सूर्य अपने मन्दोच्च पात द्वारा अल्प आकर्षित होता है किन्तु विम्बमान लघु होने से चन्द्रमा अपने मनादोच्च से सूर्य की अपेक्षा अत्यधिक आकर्षित हो जाता है।

भौमादि पञ्चतारा ग्रह लघु विम्बात्मक होने के कारण अपने-अपने शीघ्रोच्च और मन्दोच्च रूपी अदृश्य दैवी शक्तियों द्वारा अत्यन्त वेग पूर्वक सुदूर अपकृष्ट हो जाते हैं।

यही कारण है कि भौमादि ग्रहों में उनकी गतियों के कारण धन एवं ऋण संस्कार अधिक होते हैं। इस प्रकार प्रबह वायु के वेग से आहत होकर अपने अपने पातों से आकृष्ट होते हुए भौमादि ग्रह आकाश में अपनी-अपनी कक्षा में भ्रमण करते हैं।

वक्र, अनुवक्र, कुटिल, मन्द, मन्दतर, सम, शीघ्रतर तथा शीघ्र ये आठ प्रकार की ग्रहों की गतियाँ होती हैं।

इनमें अतिशीघ्र, शीघ्र, मन्द, मन्दतर और सम ये पाँच प्रकार की मार्गी गतियाँ हैं। जो वक्रगति है वही अनुवक्र भी है अर्थात् वक्र, अनुवक्र एवं कुटिल ये तीनों गतियाँ वक्र गति संज्ञक होती हैं। इस प्रकार गतियों के मार्गी और वक्री प्रमुख दो भेद होते हैं।

उन गतियों के अनुसार प्रतिदिन ग्रह जिस प्रकार दृक् तुल्य हो जाते हैं उस स्पष्टीकरण प्रक्रिया को मैं आदरपूर्वक कह रहा हूँ।

राशि कला (30° × 60 = 1800 कला) के अष्टमांश (1800 / 8 = 225 कला) को प्रथम ज्यार्ध कहते हैं। इसको इसी से विभाजित कर लब्धि को इसमें से घटाकर शेष को इस में जोड़ देने से द्वितीय ज्यार्ध का मान प्राप्त होता है।

आद्य (प्रथम) ज्यार्ध से अग्रिम पिण्डों को विभक्त कर  लब्धि से रहित ज्याखण्डों को ज्यार्ध में जोड़ने से अग्रिम ज्यापिण्ड होता है। इसी प्रकार क्रम से 24 ज्यार्ध पिण्डों के मान होते हैं।

प्रथम ज्यार्ध पिण्ड का मान 225, द्वितीय का मान (225 + 225 - 225 / 225) 449, तृतीय का मान (449 + 224 - 449 / 225) 671, चौथे का मान (671 + 222 - 671 / 225) 890, पाँचवें का मान (890 + 219 - 890 / 225) 1105, छठे का मान (1105 + 215 - 1105 / 225) 1315 होता है।

सातवें ज्यार्ध पिण्ड का मान (1315 + 210 - 1315 / 225) 1520, आठवें का मान (1520 + 205 - 1520 / 225)1719, नवें का मान (1719 + 199 - 1719 / 225) 1910, दसवें का मान (1910 + 191 - 1910 / 225) 2093 होता है।

ग्यारहवें ज्यार्ध पिण्ड का मान (2093 + 183 - 2093 / 225) 2267, बारहवें का मान (2267 + 174 - 2267 / 225) 2431, तेरहवें का मान (2431 + 164 - 2431 / 225) 2585, चौदहवें का मान (2585 + 154 - 2585 / 225) 2728 होता है।

पन्द्रहवें ज्यार्ध पिण्ड का मान (2728 + 143 - 2728 / 225) 2859, सोलहवें का मान (2859 + 131 - 2859 / 225) 2978, सत्रहवें का मान (2978 + 119 - 2978 / 225) 3084, अठारहवें मान का (3084 + 106 - 3084 / 225) 3177 होता है।

उन्नीसवें ज्यार्ध पिण्ड का मान (3177 + 93 - 3177 / 225) 3256, बीसवें का मान 3256 + 79 - 3256 / 225) 3321, इक्कीसवें का मान 3321 + 65 - 3321 / 225) 3372, बाईसवें का मान (3372 + 51 - 3372 / 225) 3409 होता है।

तेईसवें ज्यार्ध पिण्ड का मान (3409 + 37 - 3409 / 225) 3431 एवं चौबीसवें का मान (3431 + 36 - 3431 / 225) 3438 (त्रिज्या तुल्य) होता है। उत्क्रम (विपरीत क्रम से) ज्यार्ध पिण्डों को व्यासार्ध (3438) से घटाने पर 24 उत्क्रमज्याओं के मान ज्ञात हो जाते हैं।

प्रथम उत्क्रमज्या का मान त्रिज्या (3438) - (24 - 1)वां ज्यार्धपिण्ड (3431) = 7, द्वितीय उत्क्रमज्या का मान 3438 - (24 - 2)वां ज्यार्धपिण्ड (3409) = 29, तीसरी उत्क्रमज्या का मान 66, चौथी उत्क्रमज्या का मान 117, पाँचवीं उत्क्रमज्या का मान 182, छठी उत्क्रमज्या का मान 261, सातवीं उत्क्रमज्या का मान 354 होता है।

आठवीं उत्क्रमज्या का मान 460, नवीं उत्क्रमज्या का मान 579, दसवीं उत्क्रमज्या का मान 710, ग्यारहवीं उत्क्रमज्या का मान 853, बारहवीं उत्क्रमज्या का मान 1007, तेरहवीं उत्क्रमज्या का मान 1171 होता है।

चौदहवीं उत्क्रमज्या का मान 1345, पंद्रहवीं उत्क्रमज्या का मान 1528, सोलहवीं उत्क्रमज्या का मान 1719, सत्रहवीं उत्क्रमज्या का मान 1918 होता है।

अठारहवीं उत्क्रमज्या का मान 2123, उन्नीसवीं उत्क्रमज्या का मान 2333, बीसवीं उत्क्रमज्या का मान 2548, इक्कीसवीं उत्क्रमज्या का मान 2767 होता है।

बाईसवीं उत्क्रमज्या का मान 2989, तेईसवीं उत्क्रमज्या का मान 3213 एवं चौबीसवीं उत्क्रमज्या का मान 3438 (त्रिज्या तुल्य) होता है।

परमक्रान्तिज्या (3438 sin ϵ)  का मान 1317 कला होता है। परमक्रान्तिज्या से इष्टज्या (3438 sin l) को गुणाकर गुणनफल में त्रिज्या (3438) से भाग देने से लब्धि इष्ट क्रान्तिज्या (3438 sin δ  होती है इसका चाप मान (arcsin) इष्टक्रान्ति (δ) होती है।

अहर्गणोत्पन्न मध्यम ग्रह को अपने अपने मन्दोच्च एवं शीघ्रोच्च से घटाने पर शेष क्रमशः मन्द केन्द्र और शीघ्र केन्द्र होते हैं। केन्द्र से पदज्ञान तथा पद से भुज और कोटि का ज्ञान किया जाता है।

विषम पद में गत चाप की जीवा भुजज्या तथा गम्य चाप की जीवा कोटि संज्ञक होती है। सम पद में (विपरीत) गम्य चाप की जीवा भुजज्या तथा गत चाप की जीवा कोटिज्या होती है।

जिस चाप की ज्या अभीष्ट हो, उस चाप की कला को 225 से भाग देने पर लब्धि गत ज्यापिण्ड होता है। शेष को ऐष्य (अग्रिम) ज्यापिण्ड और गत ज्यापिण्ड के अन्तर से गुणा कर गुणनफल को 225 से भाग दें।

इस प्रकार प्राप्त लब्धि को गत ज्यापिण्ड में जोड़ने से अभीष्ट चाप की ज्या होगी। यही ज्या साधन की विधि है तथा इसी प्रकार उत्क्रमज्या का भी साधन किया जाता है।

इष्टज्या से जितनी ज्या घट सके उन्हें घटाकर शेष को 225 से गुणाकर उसमें दोनों (गत और गम्य) ज्या के अन्तर से भाग देने पर प्राप्त लब्धि को शुद्ध ज्या संख्या और 225 के गुणनफल में जोड़ देने पर अभीष्ट चाप का मान हो जायेगा।

सम पदान्त में सूर्य का 14 एवं चन्द्रमा का 32 अंश मन्द परिध्यंश होता है। विषम पद में इससे 20 कला कम मन्द परिध्यंश होता है। अर्थात् विषम पद में सूर्य का 13 अंश 40 कला एवं चन्द्रमा का 31 अंश 40 कला मन्द परिध्यंश होगा।

भौमादि पाँच ग्रहों के क्रम से समपदान्त में 75, 30, 33, 12, 49 अंश मन्द परिध्यंश होते हैं तथा विषम पदान्त में क्रम से 72, 28, 32, 11 एवं 48 अंश मन्द परिध्यंश होते हैं।

समपदान्त में भौमादि ग्रहों के शीघ्र परिध्यंश क्रम से 235, 133, 70, 262, 39 अंश होते हैं।

विषम पदान्त में शीघ्र परिध्यंश क्रमशः 232, 132, 72, 260, 40 अंश होते हैं।

विषम और समपदान्त की मन्द अथवा शीघ्र परिधियों के अन्तर को मन्दकेन्द्र या शीघ्रकेन्द्र की भुजज्या से गुणाकर त्रिज्या से भाग देने पर प्राप्त लब्धि को समपदान्त परिधि में धन ऋण करने से स्फुट परिधि होती है। यदि केन्द्र समपदान्त में हो और विषमपदान्त की परिधि से समपदान्त की परिधि अल्प हो तो लब्ध फल का समपदान्त परिधि में धन संस्कार और इसके विपरीत ऋण संस्कार होगा।

इष्ट स्थानीय स्पष्ट परिधि से मन्दकेन्द्र भुजज्या को तथा केन्द्र कोटिज्या को गुणा कर भगणांश (360) से भाग देने पर क्रम से भुजफल एवं कोटिफल सिद्ध होंगे। भुजफल के चाप का कलादि मान मन्दफल होता है।

मकरादि छ राशियों (270 से 90 अंश) में यदि शीघ्रकेन्द्र हो तो शीघ्रकोटिफल का त्रिज्या में धन संस्कार करने से तथा कर्कादि छ राशियों (90 से 270 अंश) में शीघ्रकेन्द्र हो तो शीघ्रकोटिफल का त्रिज्या में ऋण संस्कार करने से स्पष्ट शीघ्रकोटि होती है।

शीघ्र भुजफल और शीघ्र कोटिफल के वर्ग योग का वर्गमूल स्फुट शीघ्रकर्ण होता है। भुजफल को त्रिज्या से गुणाकर चलकर्ण (शीघ्रकर्ण) से भाग दें।

इस प्रकार प्राप्त लब्धि का चाप कलादि शीघ्रफल होता है। यह शीघ्रफल भौमादि पञ्चताराग्रहों के प्रथम और चतुर्थ कर्म (संस्कार) में उपयोगी होता है।

सूर्य और चन्द्रमा को स्पष्ट करने के लिये केवल एक ही मन्दफल संस्कार किया जाता है। शेष भौमादि पञ्चतारा ग्रहों के लिये संस्कार विधि कह रहा हूँ। पहले शीघ्रफल पश्चात् मन्दफल पुनः मन्दफल फिर शीघ्रफल का संस्कार क्रम एवं अनुक्रम से करना चाहिये।

मध्यम ग्रह में पहले शीघ्रफल का आधा तदनन्तर मन्दफल का आधा तत्पश्चात् समग्र मन्दफल एवं समग्र शीघ्रफल का संस्कार किया जाता है।

सूर्यादि सभी ग्रहों के मन्द केन्द्र और शीघ्र केन्द्र मेषादि 6 राशियों में (0 से 180 अंश) हो तो मध्यम ग्रह में कलादि मन्दफल और शीघ्रफल का धन संस्कार तथा तुलादि केन्द्र (180 से 360 अंश) होने पर मध्यम ग्रह में ऋण संस्कार किया जाता है।

सूर्य के भुजफल (मन्दफल) को ग्रहगतिकला से गुणाकर गुणनफल को भचक्रकला (360 × 60 = 21600 कला) से भाग देने पर जो कलात्मक लब्धि हो उसे भुजान्तर कहते हैं। उसका संस्कार अभीष्ट ग्रह में सूर्य मन्दफल के अनुसार करना चाहिये।

चन्द्रमा की मन्दोच्च गति से चन्द्रमा की मध्यम गति घटाने से शेष केन्द्र गति होती है। चन्द्र केन्द्र गति से आगे कही गई विधि द्वारा (दोर्ज्यान्तर गुणा इत्यादि) चन्द्रगतिफल का साधन कर चन्द्रमा की मध्यम गति से आगे निर्दिष्ट विधि द्वारा धन-ऋण करने से चन्द्रमा की स्पष्टागति होती है। स्पष्ट ग्रहसाधन हेतु जिस प्रकार मन्दफल का साधन किया जाता है उसी प्रकार मन्दगतिफल का भी साधन करना चाहिये। चन्द्रगतिफल साधन में चन्द्रमा की मन्दकेन्द्रगति तथा अन्य ग्रहों की मध्यमा गति  को गत-गम्य भुजज्याओं के अन्तर से गुणा कर 225 से भाग देने पर जो लब्धि प्राप्त हो उसे मन्दपरिधि से गुणा कर भगणांश (360 अंश) से भाग देने पर प्राप्त कलादि लब्धि को कर्कादि केन्द्र होने पर (90 से 270 अंश) मध्यम गति में जोड़ने तथा मकरादि केन्द्र होने पर (270 से 90 अंश) मध्यम गति से घटाने पर ग्रहों की स्पष्टा गति होती है।





ग्रहों की मन्दस्पष्ट गति को अपनी-अपनी शीघ्रोच्चगति से घटाकर शेष को त्रिज्या और अन्त्य कर्ण के अन्तर [{(90 - शीघ्रफल) - फलकोज्या} ~ अन्त्य कर्ण = शेष] से गुणा कर चलकर्ण से भाग देने पर प्राप्त लब्धि शीघ्रगतिफल होती है।

शीघ्रकर्ण यदि त्रिज्या से अधिक हो तो फल धन और अल्प हो तो फल ऋण होता है। मन्दस्पष्ट गति में शीघ्रगतिफल का धन ऋण संस्कार करने से स्पष्ट गति होती है। यदि ऋण शीघ्रगतिफल मन्दस्पष्ट गति से अधिक हो तो शीघ्रगतिफल से मन्दस्पष्ट गति को घटाने पर जो शेष रहे वह ग्रह की वक्र गति होती है।

अपने शीघ्रोच्च से दूर (90 अंश से अधिक दूरी पर) स्थित होने पर शीघ्रोच्च रश्मियों के शिथिल हो जाने से अर्थात् शीघ्रोच्चजन्य आकर्षण शक्ति के शिथिल हो जाने पर ग्रह वाम भाग में (अन्य नीच स्थानीय आकर्षण शक्ति के प्रभाव से) आकृष्ट होकर वक्री हो जाते हैं।

भौमादि ग्रह अपने अपने चतुर्थ शीघ्रकेन्द्र से क्रमशः 164, 144, 130, 163 तथा 115 अंशों पर होते हैं तो इनका वक्रगतित्व आरम्भ होता है। उक्त शीघ्र केन्द्रांशो को चक्र (360 अंश) में घटाने से अवशिष्ट अंशों के तुल्य ग्रह होने पर ग्रह वक्र गति का त्याग करते हैं अर्थात् मार्गी हो जाते हैं।



मन्दपरिधि की अपेक्षा शीघ्रपरिधि के बड़ी होने से शुक्र और मंगल अपने केन्द्र से सातवीं राशि में, गुरु और बुध आठवीं राशि में, तथा शनि नवम राशि में अपना वक्रत्व त्याग देते हैं।

अहर्गणोत्पन्न भौम शनि और गुरु के पातों में ग्रहवत् शीघ्रफल का संस्कार करना चाहिये। बुध और शुक्र के पातों का तृतीय संस्कार अर्थात् मन्दफल का विपरीत संस्कार करना चाहिये।

भौमादि स्पष्ट ग्रहों व शुक्र-बुध के शीघ्रोच्चों को अपने अपने पातों से रहित कर शेष की जीवा (ज्या) को विक्षेप (शर) से गुणाकर अन्त्यकर्ण (शीघ्रकर्ण, चन्द्रमा के लिये त्रिज्या) से भाग देने से कलात्मक लब्धि क्रान्तिसंस्कार योग्य शर होता है।

विक्षेप (शर) और मध्यमक्रान्ति की एक ही दिशा हो तो विक्षेप और क्रान्ति का योग करने से स्पष्ट क्रान्ति होती है और भिन्न दिशा होने पर अन्तर स्पष्ट क्रान्ति होती है। सूर्य की गणितागत क्रान्ति ही स्फुट क्रान्ति होती है।

अभीष्ट ग्रह की स्पष्टगति को ग्रहनिष्ठ राश्युदयासुओं (सायन ग्रह जिस राशि पर हो उस राशि के उदयमान) से गुणा कर 1800 से भाग देने पर जो लब्धि प्राप्त हो उसे चक्रकला (21600) में जोड़ने पर अभीष्ट ग्रह के अहोरात्रासु होते हैं।

स्फुटक्रान्ति से ज्या (3438 sin δ  और उत्क्रमज्या (3438 - 3438 cos δ  दोनों का साधन कर त्रिज्या (3438) में से उत्क्रमज्या को घटाने से शेष (3438 cos δ  अहोरात्रवृत्त का व्यासार्द्ध होता है जिसे द्युज्या कहते हैं। यह व्यासार्द्ध दक्षिणक्रान्ति होने पर दक्षिणगोल का व उत्तरक्रान्ति होने पर उत्तरगोल का होता है।

क्रान्तिज्या (3438 sin δ  को पलभा (12 tan φ) से गुणा कर गुणनफल में 12 का भाग देने पर लब्धि (3438 sin δ tan φ) क्षितिज्या (कुज्या) होती है। इसे त्रिज्या (3438) से गुणाकर द्युज्या (3438 cos δ  से भाग देने पर लब्धि (3438 tan δ tan φ) चरज्या (3438 sin C) होती है और इसका चाप (arcsin) चर (C) संज्ञक होता है।

उक्त चरज्या को चापात्मक बनाने से चरासु होते हैं। उत्तर क्रान्ति होने पर चरासु को अहोरात्रासु के चतुर्थांश में जोड़ने से दिनार्ध तथा घटाने से रात्र्यर्ध काल होता है। दक्षिण क्रान्ति होने पर इसके विपरीत संस्कार किया जाता है।

दोनों को द्विगुणित करने पर क्रम से दिनमान और रात्रिमान होते हैं। इसी प्रकार विक्षेप को क्रान्ति में धन ऋण कर (चर साधन द्वारा) नक्षत्रों का दिन रात्रि मान ज्ञात करना चाहिये।

भभोग अर्थात् नक्षत्र का भोग (360 × 60 / 27 =) 800 कला तथा तिथि का भोग (360 × 60 / 30 =) 720 कला होता है। स्पष्ट ग्रह के राश्यादि मान की कला को नक्षत्रभोग 800 से भाग देने पर लब्धि गत नक्षत्र होता है। शेष कला से ग्रह गति द्वारा गतगम्य दिनादि का साधन करना चाहिये।

सूर्य और चन्द्रमा के योग की कलाओं को भभोग 800 से भाग देने पर लब्धि गत विष्कुम्भादि योग होते हैं। शेष को 60 से गुणा कर रवि चन्द्र के गति योग से भाग देने पर वर्तमान योग का गत-गम्य काल होता है।

सूर्य रहित चन्द्रमा की कला को तिथि भोग 720 से भाग देने पर लब्धि गत तिथि होती है। शेष को 60 से गुणा कर रवि-चन्द्र गत्यन्तर से भाग देने पर वर्तमान तिथि का गत-गम्य मान होता है।

कृष्णपक्ष की चतुर्दशी के उत्तरार्ध से क्रमशः शकुनि, चतुष्पद, नाग, तथा किंस्तुघ्न ये चार स्थिर करण होते हैं।

तदनन्तर बव आदि सात चर करण होते हैं। एक मास में बवादि करण आठ बार आते हैं।

प्रत्येक करण का भोगमान तिथ्यर्ध तुल्य होता है अर्थात् एक तिथि में दो करण होते हैं। इस प्रकार सूर्यादि ग्रहों की स्पष्ट गति कही गई है।

प्रथम अध्याय : मध्यमाधिकारः



अचिन्त्य, अनिर्वचनीय (कल्पना से परे) एवं अव्यक्त (निराकार) स्वरूप वाले,  सत्व, रज, तम, गुणत्रय से रहित, (प्रकृति) स्वरूप (सगुण), समस्त सृष्टि के आधारभूत सृष्टि स्थिति विनाशरूप मूर्तित्रयात्मक उस परब्रह्म को नमस्कार है।


सत्ययुग के स्वल्पकाल शेष रह जाने पर (सत्ययुग के अन्त में) मय नामक महान् असुर ने समस्त वेदांगों में श्रेष्ठ ज्योतिष्पिण्डों (ग्रहों) के गति के कारणभूत (प्रतिपादक) परम पवित्र एवं गूढ़ ज्यौतिष शास्त्र के उत्तम ज्ञान के प्रति जिज्ञासु होकर भगवान् सूर्य की आराधना करते हुए घोर तपस्या की।





अनन्तर उसकी (मय की) तपस्या से सन्तुष्ट होकर ज्योतिष शास्त्र के ज्ञान रूपी वरदान की अभिलाषा रखने वाले मय दानव को अत्यन्त प्रसन्नता के साथ भगवान् सूर्य ने स्वयं ग्रहों के चरित्र (ज्योतिष शास्त्र के ज्ञान) को प्रदान किया।



श्री सूर्य ने कहा ---- मैंने तुम्हारे भाव (विचार) को समझ लिया है। तुम्हारी तपस्या से मैं सन्तुष्ट हूँ। अतः मैं काल के आश्रयभूत एवं ग्रहों के महान चरित्र (ग्रह, गति, युति आदि) से परिपूर्ण ज्योतिष शास्त्र के दिव्य ज्ञान को तुम्हें प्रदान करूँगा।



(मैं तुम्हें ज्योतिष शास्त्र का ज्ञान देना चाहता हूँ परन्तु) मेरे तेज को सहन करने की शक्ति किसी प्राणी में नहीं है तथा मेरे पास इतना समय भी नहीं है कि मैं ज्योतिष शास्त्र का व्याख्यान कर सकूँ। अतः मेरा यह अंशावतार पुरुष ही तुम्हें समग्र ज्योतिष शास्त्र का ज्ञान करायेगा।



इस प्रकार कहकर तथा अंशावतार पुरुष को भली भाँति आदेश देकर भगवान् सूर्य अन्तर्ध्यान हो गये। अनन्तर उस अंशावतार पुरुष ने अत्यन्त विनम्र भाव से हाथ जोड़ कर खड़े हुए मय दानव से यह कहा।



पहले प्रत्येक युग में स्वयं भगवान सूर्य ने महर्षियों को जिस उत्तम ज्ञान को बतलाया है उसे एकाग्रचित्त होकर सुनो।



आदि (मूल) शास्त्र वही है जो पहले भगवान् भास्कर (सूर्य) ने बतलाया था। केवल युगों के परिवर्तन से इस शास्त्र में काल-भेद उत्पन्न हो गये हैं।



(काल दो प्रकार का होता है) एक काल प्राणियों (सृष्टि) का संहार करने वाला तथा दूसरा गणना करने वाला हेता है। कलनात्मक काल (गणना करने वाला) दो तरह का होता है। पहला स्थूल होने से मूर्त संज्ञक (व्यवहारिक) और दूसरा सूक्ष्म होने से अमूर्त संज्ञक (अव्यावहारिक) कहा जाता है।



प्राण आदि मूर्त संज्ञक और त्रुटि आदि अमूर्त संज्ञक काल कहे गये हैं। 6 प्राण की एक विनाडी (पल), 60 विनाडी की एक नाडी (घटी), 60 नाडी का एक नाक्षत्र अहोरात्र कहा गया है। 30 अहोरात्र का एक मास होता है। दो सूर्योदयों के मध्य का काल एक सावन दिन होता है।





उसी प्रकार तीस तिथियों का एक चान्द्र मास, एक सङ्क्रान्ति से दूसरी सङ्क्रान्ति पर्यन्त (जब तक सूर्य एक राशि पर रहता है।) एक सौरमास कहा गया है। बारह मासों का एक वर्ष तथा एक वर्ष का एक दिव्य दिन होता है।



देवताओं और असुरों का अहोरात्र (दिन एवं रात्रि) एक दूसरे से विपरीत क्रम से होता है। छ से गुणित उन साठ अहोरात्रों के तुल्य देवों का तथा दैत्यों का एक वर्ष होता है।



देवताओं और असुरों के वर्ष प्रमाण से 12 हजार वर्षों (12 सहस्त्र दिव्य वर्षों) का एक चतुर्युग (महायुग) कहा गया है। सौरमान से दस हजार गुणित 432 अर्थात् 4320000 वर्षों का एक महायुग होता है।



कृतयुगादि प्रत्येक युगों के सन्ध्या सन्ध्यांशों से युक्त चतुर्युग का मान कहा गया है। कृत-त्रेता-द्वापर-कलियुगों की पाद (1200 दिव्य वर्ष) व्यवस्था धर्मपाद के अनुरूप ही है।



महायुग के मान के दशमांश को क्रम से 4, 3, 2 और 1 से गुणा करने पर क्रम से कृत, त्रेता, द्वापर और कलियुग का मान होता है। अपने अपने युगमान के षष्ठांश तुल्य दोनों सन्धियाँ होतीं हैं।



71 महायुगों का एक मन्वन्तर कहा गया है। एक मनु के अन्त में कृतयुग तुल्य मनु की सन्धि होती है। सन्धि काल जलप्लव कहलाता है।



एक कल्प में सन्धि सहित पूर्वोक्त 14 मनु होते हैं। कल्प के आदि में कृतयुग के तुल्य सन्धि होती है। इस प्रकार 1 कल्प में सत्ययुग के समान 15 सन्धियाँ होती हैं। गणनानुसार एक कल्प 1000 महायुग का होता है।



इस प्रकार एक हजार महायुग का सृष्टि संहारकारक 1 कल्प ब्रह्मा का एक दिन कहा गया है। इतनी ही ब्रह्मा की रात्रि भी होती है।



पूर्वोक्त ब्रह्मा के अहोरात्र (2 कल्प) प्रमाण से सौ वर्ष (360 × 2 कल्प × 100) ब्रह्मा की परमायु होती है। ब्रह्मा की आयु का आधा भाग (50 वर्ष) बीत चुका है। शेष आयु (51 वें वर्ष) का यह प्रथम कल्प है।



इस वर्तमान कल्प में (सात) सन्धियों सहित (7 × 1728000 = 12096000 वर्ष) 6 मनु (6 × 06720000 = 1840320000 वर्ष) बीत चुके हैं। सप्तम वैवस्वत नामक मनु के भी 33 = 27 महायुग (27 × 4320000 = 116640000 वर्ष, अर्थात् कुल 1969056000 वर्ष) बीत चुके हैं।



वर्तमान 28 वें महायुग में कृतयुग बीत चुका है। अतः कालमानों को एकत्र कर उनका योग कर लेना चाहिये। (यहाँ कुल कालमान 1969056000 + 1728000 = 1970784000 वर्ष होता है।)



ग्रह, नक्षत्र, देव, दैत्य आदि चर एवं अचर की रचना करने में ब्रह्मा को कल्पारम्भ से शत गुणित 474 दिव्य वर्ष बीत गये। अर्थात् कल्पारम्भ से 47400 दिव्य वर्ष के अनन्तर सृष्टि काल का आरम्भ हुआ है।



प्रवह नामक वायु से प्रेरित होकर ग्रह निरन्तर अत्यन्त वेग से पश्चिम दिशा में जाते हुए दिखलाई पड़ते हैं। परन्तु नक्षत्रों से पराभूत होते अपनी-अपनी कक्षा में सभी ग्रह समान योजन पूर्व दिशा में चलते हैं। अतः इन ग्रहों का पूर्वाभिमुख गमन ही प्रमाणित होता है। अपनी-अपनी कक्षा के अनुसार इनकी दैनिक गति भिन्न-भिन्न होती है तथा उसी गति के अनुसार ग्रह राशिचक्र का भोग करते हुए भगण पूर्ण करते हैं।





शीघ्र गति वाले ग्रह अल्प काल में तथा मन्द गति वाले ग्रह अधिक काल में उन 27 नक्षत्रों का भोग करते हैं। इस प्रकार भ्रमण करते हुए रेवती नक्षत्र के अन्त में ग्रहों का भगण पूर्ण होता है।



60 विकला की एक कला, 60 कला का एक अंश, 30 अंश की एक राशि तथा 12 राशियों का एक भगण होता है।



एक महायुग में पूर्वाभिमुख गमन करने वाले सूर्य, बुध और शुक्र की तथा मंगल, शनि और गुरु के शीघ्रोच्चों की भगण संख्या 4320000 होती है।



एक महायुग में चन्द्रमा की भगण संख्या 57753336 होती है।

एक महायुग में मंगल की भगण संख्या 2296832 होती है।
एक महायुग में बुध शीघ्रोच्च की भगण संख्या 17937060 होती है।
एक महायुग में गुरु की भगण संख्या 364220 होती है।
एक महायुग में शुक्र शीघ्रोच्च की भगण संख्या 7022376 होती है।
एक महायुग में शनि की भगण संख्या 146568 होती है।
एक महायुग में चन्द्रोच्च की भगण संख्या 488203 होती है।
एक महायुग में विपरीत गति से पात (राहु, केतु) की भगण संख्या 232238 होती है।
एक महायुग में प्रवह वायु वश नक्षत्रों की भगण संख्या 1582237828 होती है। नाक्षत्र उदय काल (नक्षत्र भगण) में से ग्रहों के अपने-अपने भगण घटाने पर शेष उन-उन ग्रहों के सावन दिन होते हैं।


एक महायुग में सूर्य भगण (4320000) और चन्द्र भगण (57753336 के अन्तर तुल्य (53433336) चान्द्रमास होते हैं। युगचान्द्र मास से युग सौरमास (4320000 × 12 = 51840000) घटाने से अधिमास (1593336) होते हैं।



चान्द्र दिवसों (53433336 × 30 = 1603000080) से सावन दिवसों (1582237828 - 4320000 = 1577917828) को घटाने से शेष (25082252) तिथि क्षय होता है। सूर्य के एक उदय काल से दूसरे उदय काल तक भूमि का सावन दिन होता है।



एक महायुग में 1577967828 सावन दिन होते हैं।

एक महायुग में 1603000080 चान्द्र दिन (तिथियाँ) होती हैं।
एक महायुग में 1593336 अधिमास (अधिक मास) होते हैं।
एक महायुग में 25082252 तिथिक्षय (क्षयदिन) होते हैं।
एक महायुग में 51840000 सौर मास होते हैं।
नक्षत्रों के उदय (भगण) से सौर भगण घटाने से शेष भूमि सावन दिन होते हैं।
पूर्वोक्त अधिमास, दिन क्षय, नाक्षत्र-चान्द्र-सावन दिनों की संख्या को एक सहस्त्र से गुणा करने पर एक कल्प में अधिमासादि की संख्या हो जाती है।


पूर्वाभिनुख गमन करते हुए एक कल्प में सूर्य का मन्दोच्च 387 भगण, मंगल का मन्दोच्च 204 भगण, बुध का मन्दोच्च 368, गुरु का मन्दोच्च 900 भगण, शुक्र का मन्दोच्च 535 तथा शनि का मन्दोच्च 39 भगण पूर्ण करता है। पात विपरीत दिशा में (पश्चिमाभिमुख) भ्रमण करता है।





एक कल्प में मंगल का पात 214, बुध का पात 488, गुरु का पात 174, शुक्र का पात 903, एवं शनि का पात 662 भगण पूर्ण करता है। चन्द्रोच्च और चन्द्रमा के पात का भगण पहले ही कहा जा चुका है।





सन्धियों सहित 6 मनुओं के काल में कल्प के आदि की सन्धि जोड़कर वैवस्वत मनु के 27 महायुगों एवं 28वें महायुग के सत्ययुग के वर्ष मान को जोड़कर योगफल से सृष्ट्यारम्भ काल को घटाने से शेष सत्ययुग के अन्त में सृष्ट्यारम्भ से गतसौरवर्ष संख्या होगी। जिसका प्रमाण (1970784000 - 47400 × 360 = 1970784000 - 17064000 =) 1953720000 सौरवर्ष है।







इसके बाद गत वर्षों की संख्या को जोड़कर योग को 12 से गुणाकर मास बना लें तथा अभीष्ट समय तक के चैत्र शुक्लादि गत मासों की संख्या को जोड़कर दो स्थानों में रखें। एक स्थान पर मास संख्या को युगाधिमास से गुणाकर युग सौरमासों की संख्या से भाग दें। लब्धि सृष्ट्यादि से गत मासों में अधिमास संख्या होगी। अधिमास को  दूसरे स्थान में स्थित मास में जोड़ने से चान्द्रमास होंगे। इसमें 30 का गुणाकर दिनात्मक बनालें तथा उसमें गत तिथि जोड़कर योगफल को दो स्थानों में रखें। एक स्थान पर दिन संख्या को युगक्षय तिथियों की संख्या से गुणाकर युगचान्द्र दिनों से भाग देने पर लब्धिक्षय तिथियों की संख्या होगी। उसे द्वितीय स्थान में स्थित दिन संख्या से घटाने पर शेष सावन दिन संख्या होगी। सावन दिन संख्या में 1 रात्रि घटाने से लंका में अर्धरात्रि कालिक सावन अहर्गण होता है।







उक्त अहर्गण द्वारा सूर्य से आरम्भ कर सूर्यादि ग्रह क्रम से दिन, मास और वर्ष के स्वामी होते हैं। अहर्गण को 7 से भाग देने पर शेष संख्या तुल्य सूर्यादि ग्रह दिवा स्वामी होते हैं।



अहर्गण को दो स्थानों में रखकर एक स्थान में मासदिन संख्या(30) से तथा दूसरे स्थान पर वर्षदिन(360) से भाग देने पर जो लब्धि हो उसमें क्रम से 2 और 3 से गुणाकर 1-1 जोड़ने से जो संख्या हो उसे पृथक्-पृथक् 7 से भाग देने पर क्रम से शेष तुल्य रव्यादि ग्रह मासेश और वर्षेश होते हैं।



अहर्गण को अपने-अपने युग भगण से गुणाकर युग सावन दिनों से भाग देने पर भगणादि मध्यम ग्रह होते हैं।



पूर्वोक्त रीति से अनुपात द्वारा अपने अपने शीघ्रोच्च एवं मन्दोच्च, जिनकी गति पूर्वाभिमुख बतलाई गई है, उनका भी आनयन किया जा सकता है। तथा विलोम गति वाले पातों का साधन होता है। परन्तु साधित मान को चक्र (12 राशि) घटाने पर अभीष्ट मान होता है।



बृहस्पति के गत भगणों की संख्या को 12 से गुणाकर उसमें वर्तमान भगण की राशि संख्या को जोड़कर 60 से भाग देने पर शेष संख्या तुल्य विजयादि क्रम से संवत्सर होते हैं।



यह सब मैंने विस्तार पूर्वक कहा। अब युगारम्भ से सभी ग्रहों के मध्यम मान की संक्षिप्त एवं व्यवहारिक विधि बतला रहा हूँ।



इस कृतयुग के अन्त में पात एवं मन्दोच्चों को छोड़कर सभी ग्रहों के मध्यम मान समानता को प्राप्त कर मेष राशि के आरम्भ बिन्दु (0°) पर थे।



चन्द्रमा का उच्च मकर राशि के आरम्भ बिन्दु (270°) पर तथा चन्द्रमा का पात तुला राशि के आरम्भ बिन्दु (180°) पर था। मन्द गति के कारण अन्य ग्रहों के पात पूर्णरूप से अंशो का उपभोग नहीं कर पाये थे, इसलिये उनके सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कहा गया।



आठ सौ योजन का द्विगुणित मान अर्थात् 1600 योजन ( 1600 × 5 = 8000 कि. मी.) पृथ्वी का कर्ण (व्यास) होता है। उस के वर्ग को दस से गुणाकर गुणनफल का वर्गमूल लेने से भूपरिधि होती है।



भूपरिधि को स्वदेशीय लम्बज्या (cos ø) से गुणाकर त्रिज्या से भाग देने पर लब्धि स्वदेशीय (इष्ट) भूपरिधि होती है। इष्ट स्थान के देशान्तर योजन को ग्रहगति कला से गुणाकर स्वदेशीय भूपरिधि से भाग देने पर लब्ध कलादि फल को रेखादेश से, पूर्व में गणागत ग्रह में घटाने, तथा पश्चिम में जोड़ने से स्वदेशीय मध्यम ग्रह होते हैं।





राक्षसों के आवास लङ्का, देवताओं के स्थान सुमेरु पर्वत (उत्तरी ध्रुव) के मध्यगत सूत्र पर स्थित रोहीतक (रोहतक), अवन्ती (उज्जैन), सन्निहित सरोवर (कुरुक्षेत्र) नामक स्थान रेखादेश कहे जाते हैं।



पूर्णग्रस्त (खग्रास चन्द्र ग्रहण के समय) चन्द्रमा जब भूमि की छाया से बाहर निकलने लगता है तो उसे उन्मीलन काल कहा जाता है। यदि गणितागत उन्मीलन काल के बाद वेधसिद्ध उन्मीलन काल हो तो स्वस्थान मध्य रेखा देश से पूर्व में स्थित समझना चाहिए। यदि गणितागत काल से पहले ही उन्मीलन दृश्य हो तो स्वस्थान रेखादेश से पश्चिम में समझना चाहिए। इस उन्मीलन काल से भी इष्ट स्थान का पूर्वापर ज्ञान किया जा सकता है।





गणितागत एवं दृक् सिद्ध समयान्तर को स्पष्ट भूपरिधि से गुणाकर 60 से भाग देने से लब्धि देशान्तर योजन होता है। लब्धि तुल्य योजन स्वदेशीय परिधि में मध्यरेखा से पूर्व या पश्चिम में स्वस्थान होता है।



रेखादेश से पूर्ववर्ती देशों में रेखादेशीय मध्यरात्रि काल से देशान्तर नाडी तुल्य अधिककाल में (मध्यरात्रि काल) वार प्रवत्ति होती है। इसी प्रकार पश्चिमस्थ देशों में देशान्तर घटी तुल्य पहले वार प्रवत्ति (मध्यरात्रि काल में) होती है।



ग्रह की मध्यम गति कला को इष्ट घटी से गुणा कर 60 का भाग देने से जो कलादि लब्धि हो उसे गत इष्ट घटी होने पर मध्यरात्रि कालिक ग्रह में घटाने तथा गम्य इष्ट घटी हो तो मध्यरात्रि कालिक ग्रह में जोड़ने से इष्टकालिक ग्रह होता है।



चन्द्रमा अपने पात स्थान के प्रभाव से अपने क्रान्तिवृत्तीय मध्यस्थान से भचक्रकला (21600 कला) के 80वें (21600 / 80 = 270 कला) भाग तुल्य दूरी तक उत्तर और दक्षिण में विक्षिप्त होते हैं।



चन्द्रमा के विक्षेप (270 कला) के द्विगुणित नवमांश (270 × 2 / 9 = 60 कला) तुल्य गुरु का, त्रिगुणित नवमांश (270 × 3 / 9 = 90 कला) तुल्य मंगल का एवं चतुर्गुणित नवमांश (270 × 4 / 9 = 120 कला) बुध, शुक्र एवं शनि का विक्षेप होता है।



इस प्रकार 3^3 (= 27), 9, 12, 6, 12, 12 को दस से गुणा करने पर क्रम से चन्द्रादि ग्रहों की विक्षेप कला होती है। अर्थात् 270 कला चन्द्रमा का, 90 कला मंगल का, 120 कला बुध का, 60 कला गुरु का, 120 कला शुक्र का एवं 120 ही कला शनि का विक्षेप होता है।