मंगलवार, 11 दिसंबर 2012

प्रथम अध्याय : मध्यमाधिकारः



अचिन्त्य, अनिर्वचनीय (कल्पना से परे) एवं अव्यक्त (निराकार) स्वरूप वाले,  सत्व, रज, तम, गुणत्रय से रहित, (प्रकृति) स्वरूप (सगुण), समस्त सृष्टि के आधारभूत सृष्टि स्थिति विनाशरूप मूर्तित्रयात्मक उस परब्रह्म को नमस्कार है।


सत्ययुग के स्वल्पकाल शेष रह जाने पर (सत्ययुग के अन्त में) मय नामक महान् असुर ने समस्त वेदांगों में श्रेष्ठ ज्योतिष्पिण्डों (ग्रहों) के गति के कारणभूत (प्रतिपादक) परम पवित्र एवं गूढ़ ज्यौतिष शास्त्र के उत्तम ज्ञान के प्रति जिज्ञासु होकर भगवान् सूर्य की आराधना करते हुए घोर तपस्या की।





अनन्तर उसकी (मय की) तपस्या से सन्तुष्ट होकर ज्योतिष शास्त्र के ज्ञान रूपी वरदान की अभिलाषा रखने वाले मय दानव को अत्यन्त प्रसन्नता के साथ भगवान् सूर्य ने स्वयं ग्रहों के चरित्र (ज्योतिष शास्त्र के ज्ञान) को प्रदान किया।



श्री सूर्य ने कहा ---- मैंने तुम्हारे भाव (विचार) को समझ लिया है। तुम्हारी तपस्या से मैं सन्तुष्ट हूँ। अतः मैं काल के आश्रयभूत एवं ग्रहों के महान चरित्र (ग्रह, गति, युति आदि) से परिपूर्ण ज्योतिष शास्त्र के दिव्य ज्ञान को तुम्हें प्रदान करूँगा।



(मैं तुम्हें ज्योतिष शास्त्र का ज्ञान देना चाहता हूँ परन्तु) मेरे तेज को सहन करने की शक्ति किसी प्राणी में नहीं है तथा मेरे पास इतना समय भी नहीं है कि मैं ज्योतिष शास्त्र का व्याख्यान कर सकूँ। अतः मेरा यह अंशावतार पुरुष ही तुम्हें समग्र ज्योतिष शास्त्र का ज्ञान करायेगा।



इस प्रकार कहकर तथा अंशावतार पुरुष को भली भाँति आदेश देकर भगवान् सूर्य अन्तर्ध्यान हो गये। अनन्तर उस अंशावतार पुरुष ने अत्यन्त विनम्र भाव से हाथ जोड़ कर खड़े हुए मय दानव से यह कहा।



पहले प्रत्येक युग में स्वयं भगवान सूर्य ने महर्षियों को जिस उत्तम ज्ञान को बतलाया है उसे एकाग्रचित्त होकर सुनो।



आदि (मूल) शास्त्र वही है जो पहले भगवान् भास्कर (सूर्य) ने बतलाया था। केवल युगों के परिवर्तन से इस शास्त्र में काल-भेद उत्पन्न हो गये हैं।



(काल दो प्रकार का होता है) एक काल प्राणियों (सृष्टि) का संहार करने वाला तथा दूसरा गणना करने वाला हेता है। कलनात्मक काल (गणना करने वाला) दो तरह का होता है। पहला स्थूल होने से मूर्त संज्ञक (व्यवहारिक) और दूसरा सूक्ष्म होने से अमूर्त संज्ञक (अव्यावहारिक) कहा जाता है।



प्राण आदि मूर्त संज्ञक और त्रुटि आदि अमूर्त संज्ञक काल कहे गये हैं। 6 प्राण की एक विनाडी (पल), 60 विनाडी की एक नाडी (घटी), 60 नाडी का एक नाक्षत्र अहोरात्र कहा गया है। 30 अहोरात्र का एक मास होता है। दो सूर्योदयों के मध्य का काल एक सावन दिन होता है।





उसी प्रकार तीस तिथियों का एक चान्द्र मास, एक सङ्क्रान्ति से दूसरी सङ्क्रान्ति पर्यन्त (जब तक सूर्य एक राशि पर रहता है।) एक सौरमास कहा गया है। बारह मासों का एक वर्ष तथा एक वर्ष का एक दिव्य दिन होता है।



देवताओं और असुरों का अहोरात्र (दिन एवं रात्रि) एक दूसरे से विपरीत क्रम से होता है। छ से गुणित उन साठ अहोरात्रों के तुल्य देवों का तथा दैत्यों का एक वर्ष होता है।



देवताओं और असुरों के वर्ष प्रमाण से 12 हजार वर्षों (12 सहस्त्र दिव्य वर्षों) का एक चतुर्युग (महायुग) कहा गया है। सौरमान से दस हजार गुणित 432 अर्थात् 4320000 वर्षों का एक महायुग होता है।



कृतयुगादि प्रत्येक युगों के सन्ध्या सन्ध्यांशों से युक्त चतुर्युग का मान कहा गया है। कृत-त्रेता-द्वापर-कलियुगों की पाद (1200 दिव्य वर्ष) व्यवस्था धर्मपाद के अनुरूप ही है।



महायुग के मान के दशमांश को क्रम से 4, 3, 2 और 1 से गुणा करने पर क्रम से कृत, त्रेता, द्वापर और कलियुग का मान होता है। अपने अपने युगमान के षष्ठांश तुल्य दोनों सन्धियाँ होतीं हैं।



71 महायुगों का एक मन्वन्तर कहा गया है। एक मनु के अन्त में कृतयुग तुल्य मनु की सन्धि होती है। सन्धि काल जलप्लव कहलाता है।



एक कल्प में सन्धि सहित पूर्वोक्त 14 मनु होते हैं। कल्प के आदि में कृतयुग के तुल्य सन्धि होती है। इस प्रकार 1 कल्प में सत्ययुग के समान 15 सन्धियाँ होती हैं। गणनानुसार एक कल्प 1000 महायुग का होता है।



इस प्रकार एक हजार महायुग का सृष्टि संहारकारक 1 कल्प ब्रह्मा का एक दिन कहा गया है। इतनी ही ब्रह्मा की रात्रि भी होती है।



पूर्वोक्त ब्रह्मा के अहोरात्र (2 कल्प) प्रमाण से सौ वर्ष (360 × 2 कल्प × 100) ब्रह्मा की परमायु होती है। ब्रह्मा की आयु का आधा भाग (50 वर्ष) बीत चुका है। शेष आयु (51 वें वर्ष) का यह प्रथम कल्प है।



इस वर्तमान कल्प में (सात) सन्धियों सहित (7 × 1728000 = 12096000 वर्ष) 6 मनु (6 × 06720000 = 1840320000 वर्ष) बीत चुके हैं। सप्तम वैवस्वत नामक मनु के भी 33 = 27 महायुग (27 × 4320000 = 116640000 वर्ष, अर्थात् कुल 1969056000 वर्ष) बीत चुके हैं।



वर्तमान 28 वें महायुग में कृतयुग बीत चुका है। अतः कालमानों को एकत्र कर उनका योग कर लेना चाहिये। (यहाँ कुल कालमान 1969056000 + 1728000 = 1970784000 वर्ष होता है।)



ग्रह, नक्षत्र, देव, दैत्य आदि चर एवं अचर की रचना करने में ब्रह्मा को कल्पारम्भ से शत गुणित 474 दिव्य वर्ष बीत गये। अर्थात् कल्पारम्भ से 47400 दिव्य वर्ष के अनन्तर सृष्टि काल का आरम्भ हुआ है।



प्रवह नामक वायु से प्रेरित होकर ग्रह निरन्तर अत्यन्त वेग से पश्चिम दिशा में जाते हुए दिखलाई पड़ते हैं। परन्तु नक्षत्रों से पराभूत होते अपनी-अपनी कक्षा में सभी ग्रह समान योजन पूर्व दिशा में चलते हैं। अतः इन ग्रहों का पूर्वाभिमुख गमन ही प्रमाणित होता है। अपनी-अपनी कक्षा के अनुसार इनकी दैनिक गति भिन्न-भिन्न होती है तथा उसी गति के अनुसार ग्रह राशिचक्र का भोग करते हुए भगण पूर्ण करते हैं।





शीघ्र गति वाले ग्रह अल्प काल में तथा मन्द गति वाले ग्रह अधिक काल में उन 27 नक्षत्रों का भोग करते हैं। इस प्रकार भ्रमण करते हुए रेवती नक्षत्र के अन्त में ग्रहों का भगण पूर्ण होता है।



60 विकला की एक कला, 60 कला का एक अंश, 30 अंश की एक राशि तथा 12 राशियों का एक भगण होता है।



एक महायुग में पूर्वाभिमुख गमन करने वाले सूर्य, बुध और शुक्र की तथा मंगल, शनि और गुरु के शीघ्रोच्चों की भगण संख्या 4320000 होती है।



एक महायुग में चन्द्रमा की भगण संख्या 57753336 होती है।

एक महायुग में मंगल की भगण संख्या 2296832 होती है।
एक महायुग में बुध शीघ्रोच्च की भगण संख्या 17937060 होती है।
एक महायुग में गुरु की भगण संख्या 364220 होती है।
एक महायुग में शुक्र शीघ्रोच्च की भगण संख्या 7022376 होती है।
एक महायुग में शनि की भगण संख्या 146568 होती है।
एक महायुग में चन्द्रोच्च की भगण संख्या 488203 होती है।
एक महायुग में विपरीत गति से पात (राहु, केतु) की भगण संख्या 232238 होती है।
एक महायुग में प्रवह वायु वश नक्षत्रों की भगण संख्या 1582237828 होती है। नाक्षत्र उदय काल (नक्षत्र भगण) में से ग्रहों के अपने-अपने भगण घटाने पर शेष उन-उन ग्रहों के सावन दिन होते हैं।


एक महायुग में सूर्य भगण (4320000) और चन्द्र भगण (57753336 के अन्तर तुल्य (53433336) चान्द्रमास होते हैं। युगचान्द्र मास से युग सौरमास (4320000 × 12 = 51840000) घटाने से अधिमास (1593336) होते हैं।



चान्द्र दिवसों (53433336 × 30 = 1603000080) से सावन दिवसों (1582237828 - 4320000 = 1577917828) को घटाने से शेष (25082252) तिथि क्षय होता है। सूर्य के एक उदय काल से दूसरे उदय काल तक भूमि का सावन दिन होता है।



एक महायुग में 1577967828 सावन दिन होते हैं।

एक महायुग में 1603000080 चान्द्र दिन (तिथियाँ) होती हैं।
एक महायुग में 1593336 अधिमास (अधिक मास) होते हैं।
एक महायुग में 25082252 तिथिक्षय (क्षयदिन) होते हैं।
एक महायुग में 51840000 सौर मास होते हैं।
नक्षत्रों के उदय (भगण) से सौर भगण घटाने से शेष भूमि सावन दिन होते हैं।
पूर्वोक्त अधिमास, दिन क्षय, नाक्षत्र-चान्द्र-सावन दिनों की संख्या को एक सहस्त्र से गुणा करने पर एक कल्प में अधिमासादि की संख्या हो जाती है।


पूर्वाभिनुख गमन करते हुए एक कल्प में सूर्य का मन्दोच्च 387 भगण, मंगल का मन्दोच्च 204 भगण, बुध का मन्दोच्च 368, गुरु का मन्दोच्च 900 भगण, शुक्र का मन्दोच्च 535 तथा शनि का मन्दोच्च 39 भगण पूर्ण करता है। पात विपरीत दिशा में (पश्चिमाभिमुख) भ्रमण करता है।





एक कल्प में मंगल का पात 214, बुध का पात 488, गुरु का पात 174, शुक्र का पात 903, एवं शनि का पात 662 भगण पूर्ण करता है। चन्द्रोच्च और चन्द्रमा के पात का भगण पहले ही कहा जा चुका है।





सन्धियों सहित 6 मनुओं के काल में कल्प के आदि की सन्धि जोड़कर वैवस्वत मनु के 27 महायुगों एवं 28वें महायुग के सत्ययुग के वर्ष मान को जोड़कर योगफल से सृष्ट्यारम्भ काल को घटाने से शेष सत्ययुग के अन्त में सृष्ट्यारम्भ से गतसौरवर्ष संख्या होगी। जिसका प्रमाण (1970784000 - 47400 × 360 = 1970784000 - 17064000 =) 1953720000 सौरवर्ष है।







इसके बाद गत वर्षों की संख्या को जोड़कर योग को 12 से गुणाकर मास बना लें तथा अभीष्ट समय तक के चैत्र शुक्लादि गत मासों की संख्या को जोड़कर दो स्थानों में रखें। एक स्थान पर मास संख्या को युगाधिमास से गुणाकर युग सौरमासों की संख्या से भाग दें। लब्धि सृष्ट्यादि से गत मासों में अधिमास संख्या होगी। अधिमास को  दूसरे स्थान में स्थित मास में जोड़ने से चान्द्रमास होंगे। इसमें 30 का गुणाकर दिनात्मक बनालें तथा उसमें गत तिथि जोड़कर योगफल को दो स्थानों में रखें। एक स्थान पर दिन संख्या को युगक्षय तिथियों की संख्या से गुणाकर युगचान्द्र दिनों से भाग देने पर लब्धिक्षय तिथियों की संख्या होगी। उसे द्वितीय स्थान में स्थित दिन संख्या से घटाने पर शेष सावन दिन संख्या होगी। सावन दिन संख्या में 1 रात्रि घटाने से लंका में अर्धरात्रि कालिक सावन अहर्गण होता है।







उक्त अहर्गण द्वारा सूर्य से आरम्भ कर सूर्यादि ग्रह क्रम से दिन, मास और वर्ष के स्वामी होते हैं। अहर्गण को 7 से भाग देने पर शेष संख्या तुल्य सूर्यादि ग्रह दिवा स्वामी होते हैं।



अहर्गण को दो स्थानों में रखकर एक स्थान में मासदिन संख्या(30) से तथा दूसरे स्थान पर वर्षदिन(360) से भाग देने पर जो लब्धि हो उसमें क्रम से 2 और 3 से गुणाकर 1-1 जोड़ने से जो संख्या हो उसे पृथक्-पृथक् 7 से भाग देने पर क्रम से शेष तुल्य रव्यादि ग्रह मासेश और वर्षेश होते हैं।



अहर्गण को अपने-अपने युग भगण से गुणाकर युग सावन दिनों से भाग देने पर भगणादि मध्यम ग्रह होते हैं।



पूर्वोक्त रीति से अनुपात द्वारा अपने अपने शीघ्रोच्च एवं मन्दोच्च, जिनकी गति पूर्वाभिमुख बतलाई गई है, उनका भी आनयन किया जा सकता है। तथा विलोम गति वाले पातों का साधन होता है। परन्तु साधित मान को चक्र (12 राशि) घटाने पर अभीष्ट मान होता है।



बृहस्पति के गत भगणों की संख्या को 12 से गुणाकर उसमें वर्तमान भगण की राशि संख्या को जोड़कर 60 से भाग देने पर शेष संख्या तुल्य विजयादि क्रम से संवत्सर होते हैं।



यह सब मैंने विस्तार पूर्वक कहा। अब युगारम्भ से सभी ग्रहों के मध्यम मान की संक्षिप्त एवं व्यवहारिक विधि बतला रहा हूँ।



इस कृतयुग के अन्त में पात एवं मन्दोच्चों को छोड़कर सभी ग्रहों के मध्यम मान समानता को प्राप्त कर मेष राशि के आरम्भ बिन्दु (0°) पर थे।



चन्द्रमा का उच्च मकर राशि के आरम्भ बिन्दु (270°) पर तथा चन्द्रमा का पात तुला राशि के आरम्भ बिन्दु (180°) पर था। मन्द गति के कारण अन्य ग्रहों के पात पूर्णरूप से अंशो का उपभोग नहीं कर पाये थे, इसलिये उनके सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कहा गया।



आठ सौ योजन का द्विगुणित मान अर्थात् 1600 योजन ( 1600 × 5 = 8000 कि. मी.) पृथ्वी का कर्ण (व्यास) होता है। उस के वर्ग को दस से गुणाकर गुणनफल का वर्गमूल लेने से भूपरिधि होती है।



भूपरिधि को स्वदेशीय लम्बज्या (cos ø) से गुणाकर त्रिज्या से भाग देने पर लब्धि स्वदेशीय (इष्ट) भूपरिधि होती है। इष्ट स्थान के देशान्तर योजन को ग्रहगति कला से गुणाकर स्वदेशीय भूपरिधि से भाग देने पर लब्ध कलादि फल को रेखादेश से, पूर्व में गणागत ग्रह में घटाने, तथा पश्चिम में जोड़ने से स्वदेशीय मध्यम ग्रह होते हैं।





राक्षसों के आवास लङ्का, देवताओं के स्थान सुमेरु पर्वत (उत्तरी ध्रुव) के मध्यगत सूत्र पर स्थित रोहीतक (रोहतक), अवन्ती (उज्जैन), सन्निहित सरोवर (कुरुक्षेत्र) नामक स्थान रेखादेश कहे जाते हैं।



पूर्णग्रस्त (खग्रास चन्द्र ग्रहण के समय) चन्द्रमा जब भूमि की छाया से बाहर निकलने लगता है तो उसे उन्मीलन काल कहा जाता है। यदि गणितागत उन्मीलन काल के बाद वेधसिद्ध उन्मीलन काल हो तो स्वस्थान मध्य रेखा देश से पूर्व में स्थित समझना चाहिए। यदि गणितागत काल से पहले ही उन्मीलन दृश्य हो तो स्वस्थान रेखादेश से पश्चिम में समझना चाहिए। इस उन्मीलन काल से भी इष्ट स्थान का पूर्वापर ज्ञान किया जा सकता है।





गणितागत एवं दृक् सिद्ध समयान्तर को स्पष्ट भूपरिधि से गुणाकर 60 से भाग देने से लब्धि देशान्तर योजन होता है। लब्धि तुल्य योजन स्वदेशीय परिधि में मध्यरेखा से पूर्व या पश्चिम में स्वस्थान होता है।



रेखादेश से पूर्ववर्ती देशों में रेखादेशीय मध्यरात्रि काल से देशान्तर नाडी तुल्य अधिककाल में (मध्यरात्रि काल) वार प्रवत्ति होती है। इसी प्रकार पश्चिमस्थ देशों में देशान्तर घटी तुल्य पहले वार प्रवत्ति (मध्यरात्रि काल में) होती है।



ग्रह की मध्यम गति कला को इष्ट घटी से गुणा कर 60 का भाग देने से जो कलादि लब्धि हो उसे गत इष्ट घटी होने पर मध्यरात्रि कालिक ग्रह में घटाने तथा गम्य इष्ट घटी हो तो मध्यरात्रि कालिक ग्रह में जोड़ने से इष्टकालिक ग्रह होता है।



चन्द्रमा अपने पात स्थान के प्रभाव से अपने क्रान्तिवृत्तीय मध्यस्थान से भचक्रकला (21600 कला) के 80वें (21600 / 80 = 270 कला) भाग तुल्य दूरी तक उत्तर और दक्षिण में विक्षिप्त होते हैं।



चन्द्रमा के विक्षेप (270 कला) के द्विगुणित नवमांश (270 × 2 / 9 = 60 कला) तुल्य गुरु का, त्रिगुणित नवमांश (270 × 3 / 9 = 90 कला) तुल्य मंगल का एवं चतुर्गुणित नवमांश (270 × 4 / 9 = 120 कला) बुध, शुक्र एवं शनि का विक्षेप होता है।



इस प्रकार 3^3 (= 27), 9, 12, 6, 12, 12 को दस से गुणा करने पर क्रम से चन्द्रादि ग्रहों की विक्षेप कला होती है। अर्थात् 270 कला चन्द्रमा का, 90 कला मंगल का, 120 कला बुध का, 60 कला गुरु का, 120 कला शुक्र का एवं 120 ही कला शनि का विक्षेप होता है।


4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत उत्तम
    पर मेरा मानना है कि इसमें जो राशियों का समान मान माना गया है ३०अंश वह ५००वर्ष से ज्यादा प्राचीन नही है इस हिसाब से ये ग्रंथ पुनः लिखा गया है प्राचीन ग्रंथ नही है, क्योंकि नरपति जयचर्या में भी राशियों के उदयमान अलग दिये हैं और हरेक राशि का मान भी अलग कहा है तो किसे सही माने।

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  2. शायद आप राशिमान और राशियों के उदयमान में भ्रमित हो रहे हैं। राशिमान हमेशा। 30 अंश रहता है, लेकिन राशि का उदयमान समय व स्थान के साथ परिवर्तित होता रहता है।
    जहाँ तक इसके रचना काल का प्रश्न है यह ग्रन्थ प्राचीनतम है। इसके रचयिता मय को माना गया है। अब यदि पुराणों में देखें तो मय का उल्लेख मात्र रावण के ससुर के रूप में मिलता है। अतः इसकी रचना रामायण कालीन मानी जा सकती है।
    आधुनिक टिप्पणियों के अनुसार इसमें गणनाएँ वृत्त की जीवा पर आधारित हैं और टॉल्मी की गणनायें भी वृत्त की जीवा पर ही आधारित हैं। अतः टॉल्मी को ही मय माना जा सकता है।पुराणों के अनुसार मय वैसे भी भारतीय नहीं था।

    Typed with Panini Keypad

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  3. Very nice. I have been enlightened . Thanks.

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