शुक्रवार, 28 दिसंबर 2012

चतुर्थ अध्याय : चन्द्रग्रहणाधिकारः

सूर्यबिम्ब व्यास का प्रमाण 6500 योजन तथा चन्द्रबिम्ब व्यास का प्रमाण 480 योजन है।
इनके व्यास को अपनी अपनी स्पष्टागति से गुणाकर उसमें अपनी अपनी मध्यमागति से भाग देने पर इनके स्पष्ट बिम्बव्यास होते हैं। स्पष्ट सूर्यबिम्ब व्यास को रविभगण (4320000) से गुणाकर चन्द्रभगण (57753336) से भाग दें, प्राप्त मध्यम मान = 6500×432000/57753336 = 486 हुआ। अथवा
चन्द्रकक्षा से गुणाकर सूर्यकक्षा से भाग दें। प्राप्त लब्धि चन्द्रकक्षा में अथवा चन्द्राधिष्ठित आकाशगोल में स्पष्ट सूर्यबिम्ब व्यास होता है। स्पष्ट सूर्यव्यास (486) और चन्द्रव्यास (480) में 15 का भाग देने से चन्द्रकक्षा में सूर्य (32.4) और चन्द्र (32) के कलादि व्यासमान होते हैं। कोष्ठकों में सभी मान मध्यम हैं।
स्पष्टचन्द्रगति को भूव्यास से गुणाकर मध्यमचन्द्र गतिकला से भाग देने पर प्राप्त लब्धि सूची होती है। सूर्य के स्पष्ट योजनात्मक बिम्ब (मध्यम 6500) में भूव्यास (1600) को घटाएं। (शेष = 6500 - 1600 = 4900)
शेष को चन्द्र के मध्यम योजनात्मक बिम्बव्यास (480) से गुणाकर सूर्य के मध्यम योजनात्मक बिम्बव्यास (6500) से भाग देने पर जो लब्धि (361.85 = 362) प्राप्त हो उसको पूर्वसाधित सूची (मध्यम 1600) में घटाने से शेष (1600-362=1238) तमोमय भूछाया होती है। इस भूछाया को पूर्वोक्त प्रकार से कलात्मक करना चाहिये। (=1238/15 = 83)
सूर्य से 6 राशि के (180°) को अन्तर में भूछाया भ्रमण करती है। सूर्य के तुल्य अथवा छः राशि युक्त रवि के तुल्य या उससे कुछ न्यूनाधिक अंशों पर चन्द्रपात होने से ग्रहण होता है।
अमान्तकाल में सूर्य और चन्द्रमा के राश्यादि अवयव समान होते हैं। तथा पूर्णिमा के अन्त में सूर्य और चन्द्र के परस्पर 6 राशि के अन्तर पर रहने से इनके मात्र अवयवादि तुल्य होते हैं।
पर्व के दिन जिस काल में सूर्य और चन्द्रमा स्पष्ट किये गये हों उसके और अमान्त अथवा पूर्णिमान्त के बीच में जितनी गत-गम्य घटी हों उनका "इष्टनाडीगुणाभुक्तिः" इत्यादि प्रकार से जो फल प्राप्त हो उसको गत-गम्य घटिकाओं में क्रम से सूर्य और चन्द्रमा में हीन और युत करने से समकल होते हैं और पात में विलोम संस्कार करने से तात्कालिक पात होता है।
सूर्य से नीचे स्थित चन्द्रमा मेघ की तरह सूर्य का आच्छादक होता है। पूर्वाभिमुख भ्रमण करता हुआ चन्द्रमा भूछाया में प्रवेश करता है। जिससे चन्द्रग्रहण होता है।
छाद्य (चन्द्रग्रहण में चन्द्र, व सूर्यग्रहण में सूर्य) व छादक (चन्द्रग्रहण में भूछाया, व सूर्यग्रहण में चन्द्र) के बिम्ब-मानैक्यार्ध में तात्कालिक चन्द्रशर घटाने से शेष ग्रास प्रमाण होता है। (भूछाया+चं.वि.)/2-चं.श.=चं.ग्रा., (र.वि.+चं.वि.)/2-चं.श.=र.ग्रा.
ग्राह्यमान (च.विं.) से ग्रासमान अधिक हो तो सम्पूर्ण ग्रहण और न्यून हो तो न्यून (खण्ड) ग्रहण होता है। मानैक्यार्ध से शर अधिक होने पर ग्रहण सम्भव नहीं होता है।
छाद्य और छादक बिम्बों के योग और अन्तर को पृथक्-पृथक् आधा कर उनमें से शर का वर्ग घटाकर शेष दोनों का वर्गमूल लें।  {(भूछाया+चं.वि.)/2-चं.श.2},                              {(भूछाया-चं.वि.)/2-चं.श.2
इन दोनों वर्गमूलों को 60 से गुणाकर सूर्य और चन्द्र के गत्यन्तर से भाग देने पर घटिकादि फल क्रम से स्थित्यर्ध व विमर्दार्ध होते हैं। स्थित्यर्ध =60×{(भूछाया+चं.वि.)/2-चं.श.2}/(चं.ग.-र.ग.) , विमर्दार्ध =60×{(भूछाया-चं.वि.)/2-चं.श.2}/(चं.ग.-र.ग.) 
सूर्य, चन्द्र और पात की गतियों को पृथक-पृथक स्थित्यर्धघटिकाओं से गुणाकर 60 का भाग देने से जो कलादि फल प्राप्त हो, उसको सूर्य और चन्द्र में घटाने से स्पर्शस्थित्यर्ध व जोड़ने से मोक्षस्थित्यर्ध होता है। पात में विलोम क्रियायें करनी चाहिये। इस प्रकार तात्कालिक चन्द्र और पात से पूर्वोक्तरीति से शर साधन कर स्पर्शस्थित्यर्ध और मोक्षस्थित्यर्ध का साधन करें। इस प्रकार असकृत् कर्म (iteration) करने से स्पर्शस्थित्यर्ध और मोक्षस्थित्यर्ध स्पष्ट होंगे। इसी प्रकार स्पर्शमर्दार्ध और मोक्षमर्दार्ध का भी साधन करना चाहिए।
स्पष्टतिथ्यन्तकाल में मध्यग्रहण होता है। स्पष्ट तिथ्यन्तकाल में स्पर्शस्थित्यर्धघटिका घटाने से स्पर्श काल तथा मोक्षस्थित्यर्धघटिका जोड़ने से मोक्षकाल होता है।
सम्पूर्ण ग्रहण में, स्पष्टतिथ्यन्तकाल में स्पर्शमर्दार्ध घटी को हीन और मोक्षमर्दार्ध घटी को युत करने से क्रमशः सम्मीलन और उन्मीलन होते हैं।
इष्ट घट्यादि मान को स्पर्शस्थित्यर्ध घट्यादि में घटाने से जो शेष रहें उनको सूर्य-चन्द्र के गत्यन्तर से गुणाकर 60 का भाग देने पर, फल कोटिकला होती है। यहाँ ग्रहण के आरम्भ से मध्यग्रहण पर्यन्त इष्टघटिका होती है।
सूर्यग्रहण में पूर्वोक्त प्रकार से साधन की हुई कोटिकलाओं को मध्यस्थित्यर्ध से गुणाकर स्पष्टस्थित्यर्ध का भाग देने से फल स्पष्टकोटिकला होती है।
भुज अर्थात् तात्कालिक शर तथा पूर्वोक्त प्रकार से साधन की हुई कोटि इन दोनों के वर्गयोग का वर्गमूल कर्ण होता है, इस कर्ण को मानैक्यार्ध में घटाने से इष्टकालिक ग्रासमान होता है।
मध्यग्रहण से आगे इष्टघट्यादि को मोक्षस्थित्यर्ध में घटाने से जो शेष हो उसे गत्यन्तर से गुणाकर 60 का भाग देने से कोटिकला प्राप्त हेती है। इससे पूर्व प्रकार से कर्ण लाकर कर्ण को मानैक्यार्ध में घटाने से शेष इष्टग्रास होता है।
मानैक्यार्धखण्ड में इष्टग्रास को घटाकर शेष के वर्ग में तात्कालिक शर का वर्ग घटाकर, शेष का वर्गमूल लेने से चन्द्रग्रहण में कोटिलिप्ता होती है।
सूर्यग्रहण में इसप्रकार से प्राप्त कोटिकला को स्पष्टस्थित्यर्ध से गुणाकर मध्यस्थित्यर्ध का भाग देने से प्राप्त लब्धि स्पष्ट कोटिकला होती है। इन कोटिकलाओं को 60 से गुणाकर सूर्य-चन्द्र के गत्यन्तर का भाग देने से प्राप्त घटिकादि लब्धि स्वकीय स्थित्यर्ध में घटा देने से शेष इष्टग्रास घटिका होती है।
सूर्यग्रहण में सूर्य की नतकालज्या को तथा चन्द्रग्रहण में चन्द्र की नतकालज्या को स्वदेशीय अक्षज्या से गुणाकर त्रिज्या से भाग देने से प्राप्त लब्धि का चाप पूर्व-पश्चिम नतज्या के क्रम से उत्तर-दक्षिण आक्षवलन होता है।
तीन राशि युक्त ग्रह की क्रान्ति के तुल्य आयनवलन होता है। इन दोनों की एक दिशा होने पर योग तथा भिन्न दिशा होने पर अन्तर करने से स्पष्टवलन होता है। स्पष्टवलनज्या में 70 का भाग देने से अंगुलादि वलन होता है।
दिनमान, दिनार्धमान और उन्नत घटिकाओं के योग में दिनमान के आधे का भाग देने से जो फल प्राप्त हो उससे पूर्व साधित विक्षेपकादिकों में भाग देने से लब्ध फल उन विक्षेपादिकों के अंगुलादि मान होते हैं।

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