शुक्रवार, 28 दिसंबर 2012

तृतीय अध्याय : त्रिप्रश्नाधिकारः


जल के द्वारा संशोधित पत्थर की शिलातल पर अथवा वज्रलेप (सीमेंट या अन्य मसालों) से बने समतल चबूतरे पर शङ्कु के अनुसार अर्थात् 12 अङ्गुल के अर्धव्यास से वृत्त बनावें।
उस वृत्त के मध्य में 12 अङ्गुल का एक शङ्कु स्थापित करें। इस शङ्कु का छायाग्र वृत्तपरिधि को पूर्वाह्न तथा अपराह्न में जहाँ स्पर्श करे उन स्थानों पर बिन्दु बनावें। ये दोनों बिन्दु पूर्वापर ( पूर्व और पश्चिम) संज्ञक होते हैं।
इन दोनों बिन्दुओं के मध्य में तिमि (चापों) द्वारा दक्षिणोत्तर रेखा का निर्माण करना चाहिये।
याम्योत्तर (दक्षिणोत्तर) रेखा के बीच तिमि (चापों) द्वारा पूर्वापर रेखा का निर्माण कर दोनों रेखाओं के मध्य में विदिशाओं (45 अंश पर) का निर्माण करना चाहिये।
वृत्त परिधि स्थित प्रत्येक दिशा के मध्य बिन्दु से जाने वाली स्पर्श रेखाओं से वृत्त के बाहर एक चतुर्भुज का निर्माण करें। चतुर्भुज के पूर्व अथवा पश्चिम बिन्दु से गणितागत दिशा में छायाग्र-पूर्वापर सूत्रों के अन्तर तुल्य, भुजसूत्र का अङ्गुलात्मक मान, पूर्वापर रेखा से इष्टकालिक छायाग्र बिन्दु का मान होता है। अर्थात् छाया की विरुद्ध दिशा में छायाग्रान्तर तुल्य सूर्य का दिगंश होता है।
पूर्व एवं पश्चिम बिन्दु से संलग्न पूर्वापर रेखा सममण्डल (पूर्वापर वृत्त) के धरातल में होती है। ऐसा दैवज्ञों का मत है। वही पूर्वापर रेखा उन्मण्डल में तथा विषुवत् वृत्त के धरातल में (समानान्तर) भी होती है।
पूर्वापर सूत्र के समानान्तर पलभाग्र बिन्दु से जाने वाली रेखा और इष्ट छायाग्र बिन्दु का अन्तर अग्रा होता है। यहाँ पलभा = 12 tan φ (जहाँ φ स्थान का अक्षांश है) और अग्रा = 12(sin दिगंश - tan φ)। कर्णवृत्त में परिणत करने पर इसे कर्णवृत्ताग्रा कहते हैं।

छाया यन्त्र

शङ्कु और छाया के वर्ग योग का वर्गमूल कर्ण होता है। कर्ण वर्ग से शङ्कु वर्ग को घटाकर शेष का वर्गमूल छाया तथा इससे विपरीत कर्ण वर्ग से छाया वर्ग को घटाकर शेष का वर्गमूल शङ्कु होता है।
एक महायुग में नक्षत्र चक्र तीस बार बीस अर्थात् 600 बार पूर्व दिशा में परिलम्बित होता है। 600 से अहर्गण को गुणा कर गुणनफल में युग सावन दिन संख्या से भाग देने पर प्राप्त लब्धि का भुज बनावें। अर्थात् भुज = 3438 sin (600 × 360 × अहर्गण / युगसावनदिन) = 3438 sin (0.00013689×अहर्गण)
इस भुज में 3 से गुणा कर 10 का भाग देने से अयनांश होता है। इस अयनांश संस्कृत ग्रह (सायन ग्रह) द्वारा क्रान्ति, छाया, चरखण्ड आदि का साधन करना चाहिये।
दोनों अयन बिन्दुओं (सायन कर्क एवं सायन मकर) तथा दोनों विषुव बिन्दुओं (सायन मेष और सायन तुला) पर सूर्य के संक्रमण (संक्रान्ति) के समय अयन चलन की गति स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। छायार्क से गणितागत सूर्य अल्प होने पर अन्तरांश तुल्य सम्पात से भचक्र पूर्व की और चला है।
और यदि गणितागत सूर्य का भोगांश अधिक है तो अन्तरांश तुल्य नक्षत्र चक्र पश्चिम दिशा में चला है ऐसा समझें। इस प्रकार अपने-अपने देश (स्थान) में मध्याह्न काल की विषुवच्छाया को लें।
यह विषुवच्छाया दक्षिणोत्तर रेखा पर पड़ेगी। इसे ही पलभा कहते हैं। शङ्कु (12 अङ्गुल) और शङ्कुच्छाया (12 tan φ) से पृथक्-पृथक् त्रिज्या (3438) को गुणाकर गुणनफल को पलकर्ण {(122 + 122 tan2 φ) = 12 sec φ} से भाग दें।
प्राप्त फल क्रमशः लम्बज्या (3438 cos φ) और अक्षज्या (3438 sin φ) होती है। इनके चापीय मान (arcsin) क्रमशः लम्बांश (90 - φ) और अक्षांश (φ) होते हैं। उत्तर गोल में अक्षांश सदैव दक्षिण होते हैं। मध्याह्न काल में सूर्य की छाया {12 tan (φ ± d) भुज संज्ञक होती है, इसे त्रिज्या (3438) से गुणा करें।
गुणनफल में मध्याह्नकालिक छायाकर्ण {12 sec (φ ± d)} से भाग देने पर जो प्राप्त लब्धि {3438 sin (φ ± d) की चाप कला मध्याह्नकालिक नतांश (φ ± d) होता है। यदि छाया पूर्वापर सूत्र से दक्षिण हो तो उत्तर नतांश और यदि उत्तर दिशा में हो दक्षिण नतांश होता है।
यदि सूर्य की क्रान्ति कला (d) और नतांश (φ - d) में परस्पर दिग्भेद हो तो दोनों का योग करने से तथा यदि दोनों की एक ही दिशा होने पर (नतांश = φ + d) अन्तर करने से अक्षलिप्ता (अक्षांश कला, φ) होती है। उक्त अक्षांश से अक्षज्या (3438 sin φ) साधित कर उसके वर्ग को त्रिज्या (3438) के वर्ग में घटाकर शेष का वर्गमूल लेने से लम्बज्या (3438 cos φ) होती है।
अक्षज्या (3438 sin φ) को 12 से गुणाकर लम्बज्या (3438 cos φ) से भाग देने पर लब्ध फल पलभा (12 tan φ) होती है। स्वदेशी अक्षांश (φ) और नतांश (φ - d) यदि एक दिशा के हों (d < φ) तो अन्तर, यदि भिन्न दिशा के हों (नतांश = d - φ, d > φ) तो योग करने से मध्याह्न काल में सूर्य की क्रान्ति (d) होती है।
क्रान्तिज्या (3438 sin d) को त्रिज्या (3438) से गुणाकर परमक्रान्तिज्या (3438 sin e) से भाग देने से जो लब्धि (3438 sin l, अर्थात् sin l = sin d / sin e) प्राप्त हो उसका चाप मेषादि तीन राशियों में सायन सूर्य होता है।
कर्कादि तीन राशियों में लब्धि को छः राशि से घटाने से, तुलादि तीन राशियों में छः राशि में जोड़ने से तथा मकरादि तीन राशियों में द्वादश से घटाने पर शेष मध्याह्न कालिक स्पष्ट सायन सूर्य होता है।
गणितागत स्फुट सूर्य से मन्दफल का साधन कर उसका स्पष्ट सूर्य में विलोम संस्कार करें पुनः संस्कृत सूर्य से मन्दफल साधन कर स्पष्ट सूर्य में विलोम संस्कार करें। इस प्रकार असकृत् (बार-बार) संस्कार करने से अहर्गणोत्पन्न मध्यम सूर्य होता है। अक्षांश (φ) और सूर्य के क्रान्त्यंशों (d) की एक दिशा होने पर योग (φ + d) एवं भिन्न दिशा होने पर अन्तर (φ - d) करने से सूर्य का मध्याह्नकालिक नतांश (90 - z) होता है।
नतांशों को 90 में घटाने पर उन्नतांश (z) होते हैं। नतांशों की भुजज्या (3438 sin z) को दृग्ज्या कहते हैं और उन्नतांशों की ज्या (3438 cos z) को कोटिज्या या महाशङ्कु कहते हैं। शङ्कु के अङ्गुलात्मक मान 12 से क्रमशः भुजज्या व त्रिज्या को गुणा करें।
गुणनफल में कोटिज्या का भाग देने पर क्रमशः मध्याह्नकालिक छाया (12 tan z) तथा मध्याह्नकालिक छायाकर्ण (12 × 3438 / 3438 cos z = 12 sec z) होता है। क्रान्तिज्या (3438 sin d) को पलकर्ण (12 sec φ) से गुणाकर द्वादश का भाग देने से अर्काग्रा (3438 sin d / cos φ) होती है। 
इस अर्काग्रा को इष्टकालिक छायाकर्ण (12 sec z) से गुणाकर मध्यकर्ण अर्थात् त्रिज्या (3438) से भाग देने पर स्वकर्णाग्रा (12 sin d / cos φ cos z) होती है। दक्षिणगोल में कर्णाग्रा और पलभा का योग करने से तथा उत्तर गोल में पलभा में कर्णाग्रा को घटाने से शेष उत्तर भुज होता है। [अतः उत्तर भुज = 12(tan φ - sin d / cos φ cos z)]
यदि पलभा में कर्णाग्रा न घटे तो कर्णाग्रा में पलभा को घटाने से शेष दक्षिण भुज होता है। पूर्वापर सूत्र और छायाग्र के बीच में भुज होता है।
मध्याह्नकालिक भुज ही सदैव मध्याह्नकालिक छाया होती है। लम्बज्या (3438 cos φ) और अक्षज्या (3438 sin φ) को क्रम से पलभा (12 tan φ) और द्वादश से गुणाकर क्रान्तिज्या (3438 sin d) का भाग देने से प्राप्त लब्धियाँ सममण्डल छायाकर्ण (12 sin φ / sin d) होती हैं।
जब सूर्य की उत्तरा क्रान्ति अक्षांशों से अल्प होती है तभी सममण्डलगत सूर्य का छायाकर्ण होता है क्योंकि उसी स्थिति में सूर्य सममण्डल में प्रवेश करेगा। दक्षिणक्रान्ति होने पर अथवा अक्षांशों से क्रान्ति अधिक होने पर स्वक्षितिज के ऊपर सूर्य का सममण्डल में प्रवेश सम्भव नहीं होता।
प्रकारान्तर से सममण्डल कर्ण का साधन, मध्याह्न कर्ण (12 sec z) को पलभा (12 tan φ) से गुणाकर मध्याग्रा (12 sin d / cos φ cos z) का भाग करके (12 sin φ / sin d) होता आया है। इष्टक्रान्तिज्या (3438 sin d) को त्रिज्या (3438) से गुणाकर लम्बज्या (3438 cos φ) का भाग देने से अग्राज्या (3438 sin d / cos φ) होती है।
अग्रा (3438 sin d / cos φ) को अभीष्ट कालिक छायाकर्ण (12 sec z) से गुणाकर त्रिज्या (3438) से भाग देने पर लब्धि अङ्गुलादि कर्ण वृत्तीय अग्रा (12 sin d / cos φ cos z) होती है। त्रिज्या वर्ग के आधे (3438 × 3438 / 2) से अग्रा का वर्ग (3438 × 3438 sin2 d / cos2 φ) घटाकर शेष को 12 से गुणा करें।
गुणनफल में पुनः 12 का गुणाकर शङ्कु वर्ग के आधे, अर्थात् 72 से युत पलभा वर्ग (72 + 144 tan2 φ) से भाग दें।
यह प्राप्त लब्धि {34382 (cos2 φ - 2 sin2 d) / (1 + sin2 φ)} करणी संज्ञक होती है। इसे अलग रखें। 12 गुणित पलभा (144 tan φ) को अग्रा (3438 sin d / cos φ) से गुणा करें।
गुणनफल को पूर्वोक्त हर (72 + 144 tan2 φ) से भाग देने पर प्राप्त लब्धि {3438 sin d sin φ / (1 + sin2 φ)} फल संज्ञक होती है। फल के वर्ग में करणी जोड़कर वर्गमूल लें। इस मूल में दक्षिण गोल में फल घटाने से तथा उत्तर गोल में फल जोड़ने से कोण शङ्कु सिद्ध होता है। 3438 √{cos2 f (1 +  sin2 f) - sin2 d (2 + sin2 f)}/(1 + sin2 f) ± 3438 sin d sin f /(1 + sin2 f)

दण्ड की छाया व उसके अनुरूप बनने वाले समकोण त्रिभुज


याम्योत्तर सूर्य के भ्रमण करने पर अग्नि, नैऋत्य, ईशान और वायु कोण का यह शङ्कु होता है।
कोणशङ्कु और त्रिज्या के वर्गान्तर के वर्गमूल को 'दृग्ज्या' (3438 sin z) कहते हैं। दृग्ज्या और त्रिज्या को पृथक्-पृथक् 12 से गुणाकर कोणशङ्कु से भाग दें।
प्राप्त लब्धि, सूर्य की स्थिति एवं काल के अनुसार कोणवृत्त में क्रमशः छाया (12 tan z) और छायाकर्ण (12 sec z) होता है। उत्तर गोल में त्रिज्या (3438) में चरज्या (3438 cos C) जोड़ने से और दक्षिण गोल में त्रिज्या में चरज्या घटाने से अन्त्या {3438(1 + cos C)} होती है।
अन्त्या में नतकाल की उत्क्रमज्या {3438(1 - cos z)} घटाने से शेष, इष्टान्त्या      3438(cos C + cos z) होती है। इष्टान्त्या को अपने अहोरात्रवृत्त के व्यासार्ध (द्युज्या) से गुणाकर त्रिज्या का भाग देने से छेद (इष्ट हृति) (3438 cos z / cos f) होता है। छेद को लम्बज्या (3438 cos φ) से गुणा करें।
इसमें त्रिज्या को भाग देने से शङ्कु (3438 cos z) होता है। शङ्कु के वर्ग को त्रिज्या के वर्ग में घटाकर वर्गमूल लेने से दृग्ज्या (3438 sin z) होती है। पूर्वोक्त रीति से साधित शङ्कु और दृग्ज्या से छाया और छायाकर्ण का साधन होता है।
इष्टकालिक छाया (12 tan z) से त्रिज्या (3438) को गुणाकर छायाकर्ण (12 sec z) का भाग देने से लब्धि दृग्ज्या (3438 sin z) होती है। त्रिज्या वर्ग में इस दृग्ज्या का वर्ग घटाकर वर्गमूल लेने से शङ्कु (3438 cos z) होता है।
शङ्कु को त्रिज्या से गुणाकर स्वलम्बज्या (3438 cos φ) का भाग देने पर इष्ट हृति या छेद (3438 cos z / cos φ) होता है। इस छेद को त्रिज्या से गुणाकर अपने अहोरात्र के व्यासार्ध से भाग देने से उन्नतज्या या इष्टान्त्या 3438(cos C + cos z) होती है।
इस इष्टान्त्या को स्वकीय अन्त्या में घटाने से शेष नतकाल की उत्क्रमज्या 3438(1-cos z) होती है। उत्क्रमज्या पिण्डों से चाप करने से नतासु (90-z) होते हैं। ये पूर्वाह्नकालिक इष्टछाया में पूर्व कपाल में तथा अपराह्न कालिक इष्टछाया में पश्चिम कपाल में नतासु होते हैं।
इष्टकालिक कर्णवृत्ताग्रा (12 sin d / cos f cos z) को लम्बज्या (3438 cos f) से गुणाकर तात्कालिक छायाकर्ण (12 sec z) से भाग देने पर इष्टक्रान्तिज्या (3438 sin d) होती है। इष्टक्रान्तिज्या को त्रिज्या से गुणाकर परमक्रान्तिज्या (3438 sin e) सा भाग देने पर इष्टभुजज्या (3438 sin l) होती है। (sin l = sin d / sin e)
इसका चाप राश्यादि इष्टभुज (l) होता है। इस भुज (क्षेत्र) से उत्पन्न सायन रवि चारों पादों में होगा। इष्टदिन के पूर्वाह्ण या अपराह्ण में या मध्यकाल में स्थापित शङ्कु की छायारूप तीन भुजाओं पर चिह्न अंकित करें।
अव्यवहित दो दो चिह्नों से दो मत्स्य बनाकर उनके मुखपुच्छगत रेखा (line bisectors) करें। फिर मुखपुच्छगत रेखाओं को अपने मार्ग में बढ़ाने से जहाँ संपात हो उस सम्पातबिन्दु को केन्द्र मानकर सम्पातबिन्दु और किसी भुजाग्रबिन्दु के अन्तर के तुल्य त्रिज्या से जो वृत्त बनेगा वह तीनों भुजाग्रचिह्नों को स्पर्श करता हुआ जायेगा। यही भाभ्रमवृत्त है, इसी वृत्त में शङ्कु की छाया भ्रमण करेगी। तीन राशियों की ज्या (3438 sin 30°=1719, 3438 sin 60°=2977 , 3438 sin 90°=3438) को अलग अलग तीन राशि की द्युज्या अर्थात् परमाल्पद्युज्या (cos e) से गुणाकर स्वद्युज्या (cos d) से भाग दें।
प्राप्त लब्धियों का चाप बनाकर क्रमशः अधोऽधः घटाने से मेषादि राशियों के उदयमान होते हैं।
पूर्वसाधित लङ्कोदयासुओं में अपने देश के चरासु घटाने से तत्तद् राशियों के स्वदेशोदयासु होते हैं।
मेषादि तीन राशियों के लङ्कोदयासुओं को विलोम क्रम से रखकर उनमें मेषादि राशियों के चरखण्डों को विपरीत क्रम से जोड़ने पर कर्क आदि तीन राशियों के उदयासु होंगे। मेषादि छः राशियों के उदयासु ही उत्क्रमगणना से तुलादि छः राशियों के उदयासु होते हैं।
तात्कालिक सायन सूर्य के गतासु या भोग्यासु बनाकर, जिस राशि पर सूर्य हो उस राशि के उदयासुओं से गुणाकर 30 (ख-वह्निभिः) का भाग देने से क्रमशः गत और भोग्य असु होते हैं।
इष्ट घटिकाओं के असुओं में भोग्यासुओं को घटाकर आगे की राशियों के उदयासुओं को भी जहाँ तक घट सके घटाएं। जिस राशि के उदयासु नहीं घट सकें उनको अशुद्ध कहते हैं।
घटाने से बचे शेष को 30 से गुणाकर अशुद्ध का भाग देने से जो अंशादि फल मिले उनको अशुद्ध से पूर्व जितनी मेष आदि राशियाँ हों उनमें जोड़ने से अथवा घटाई हुई राशि तथा अंशादिकोँ के इस अंशादि फल में जोड़ने से तात्कालिक उदय लग्न होता है।
पूर्व-पश्चिम नत घटिका और तात्कालिक सायन सूर्य से लग्नायन की भाँति लङ्कोदयासुओं से साधन करने से जो राश्यादिक फल प्राप्त हो उसको सूर्य में ऋण-धन (पूर्व नत हो तो ऋण, पश्चिम नत हो तो धन) करने से मध्यलग्न (दशम लग्न) होगा।
लग्न और सूर्य के बीच में जो अल्प हो उसके भोग्यासु तथा जो अधिक हो उसके भुक्तासु साधन कर इन दोनों के योग में अन्तर लग्नासु अर्थात् लग्न और सूर्य के बीच में जितनी राशियाँ हों उनके उदयासुओं को जोड़ने से इष्टकाल होता है।
स्पष्ट सूर्य से लग्न न्यून हो तो रात्रि शेष में अर्थात् सूर्योदय से पूर्व का इष्टकाल होगा और अधिक हो तो दिन में अर्थात् सूर्योदय के पश्चात् दिन का इष्टकाल होगा। यदि छः राशियुक्त सूर्य से अधिक लग्न हो तो सूर्यास्त के अनन्तर रात्रि का इष्टकाल होगा।

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