मंगलवार, 11 दिसंबर 2012

द्वितीय अध्याय : स्पष्टाधिकारः





भगण (क्रान्तिवृत्त) पर आश्रित शीघ्रोच्च, मन्दोच्च एवं पात संज्ञक काल की अदृश्य मूर्तियाँ ग्रहों की गति का कारण होती है, अर्थात् इन्हीं अदृश्य मूर्तियों के कारण ग्रहपिण्डों में गति उत्पन्न होती है।

इन शीघ्रोच्च, मन्दोच्च एवं पात संज्ञक अदृश्य शक्तियों की वायुरूपी रस्सी से बँधे हुए ग्रह उन्हीं शक्तियों द्वारा वामदक्षिणहस्त से अपनी दिशा में अपने समीप अपकृष्ट होते (खींच लिये जाते) हैं।

प्रवह नामक वायु ग्रहों को उनके उच्च स्थानों की ओर प्रेरित करती है। पूर्व और पश्चिम की ओर खिंचे हुए ग्रहों की भिन्न-भिन्न गति होती जाती है।

ग्रहों का उच्च संज्ञक स्थान यदि पूर्व दिशा में 180° से अल्प दूरी पर हो तो ग्रह को पूर्व दिशा में तथा यदि पश्चिम दिशा में हो तो पश्चिम दिशा में खींच लेता है।

अपने अपने उच्च स्थानों से अपकृष्ट ग्रह अपने मध्यम स्थान से जितने राश्यादि तक पूर्व दिशा में जाते हैं उतने राश्यादि मान (उच्चाकर्षण फल) मध्यम ग्रह में जोड़े जाते हैं अतः इसे धन संस्कार कहते हैं तथा पश्चिम दिशा में उच्चाकर्षण फल घटाया जाता है अतएव उसे ऋण संस्कार कहते हैं।

इसी प्रकार राहु नामक पात भी क्रान्त्यन्त बिन्दु से ग्रह को अत्यन्त वेग से उत्तर और दक्षिण दिशा में विक्षेप तुल्य दूरी तक विक्षिप्त करता है।

यदि पातस्थान ग्रह से पश्चिम दिशा में 6 राशि से अल्प दूरी पर होता है तो ग्रह को उत्तर दिशा में और यदि पूर्व दिशा में 6 राशि से अल्प दूरी पर होता है तो ग्रह को दक्षिण दिशा में आकर्षित कर लेता है।

बुध और शुक्र के शीघ्रोच्चों से इनके पात पूर्वोक्त नियमानुसार पूर्व दिशा में यदि 6 राशि से अल्प दूरी पर हों तथा पश्चिम दिशा में भी 6 राशि से अल्प हों तो क्रम से उत्तर एवं दक्षिण में आकर्षित करता है।

सूर्य का विम्बमान बृहद होने से सूर्य अपने मन्दोच्च पात द्वारा अल्प आकर्षित होता है किन्तु विम्बमान लघु होने से चन्द्रमा अपने मनादोच्च से सूर्य की अपेक्षा अत्यधिक आकर्षित हो जाता है।

भौमादि पञ्चतारा ग्रह लघु विम्बात्मक होने के कारण अपने-अपने शीघ्रोच्च और मन्दोच्च रूपी अदृश्य दैवी शक्तियों द्वारा अत्यन्त वेग पूर्वक सुदूर अपकृष्ट हो जाते हैं।

यही कारण है कि भौमादि ग्रहों में उनकी गतियों के कारण धन एवं ऋण संस्कार अधिक होते हैं। इस प्रकार प्रबह वायु के वेग से आहत होकर अपने अपने पातों से आकृष्ट होते हुए भौमादि ग्रह आकाश में अपनी-अपनी कक्षा में भ्रमण करते हैं।

वक्र, अनुवक्र, कुटिल, मन्द, मन्दतर, सम, शीघ्रतर तथा शीघ्र ये आठ प्रकार की ग्रहों की गतियाँ होती हैं।

इनमें अतिशीघ्र, शीघ्र, मन्द, मन्दतर और सम ये पाँच प्रकार की मार्गी गतियाँ हैं। जो वक्रगति है वही अनुवक्र भी है अर्थात् वक्र, अनुवक्र एवं कुटिल ये तीनों गतियाँ वक्र गति संज्ञक होती हैं। इस प्रकार गतियों के मार्गी और वक्री प्रमुख दो भेद होते हैं।

उन गतियों के अनुसार प्रतिदिन ग्रह जिस प्रकार दृक् तुल्य हो जाते हैं उस स्पष्टीकरण प्रक्रिया को मैं आदरपूर्वक कह रहा हूँ।

राशि कला (30° × 60 = 1800 कला) के अष्टमांश (1800 / 8 = 225 कला) को प्रथम ज्यार्ध कहते हैं। इसको इसी से विभाजित कर लब्धि को इसमें से घटाकर शेष को इस में जोड़ देने से द्वितीय ज्यार्ध का मान प्राप्त होता है।

आद्य (प्रथम) ज्यार्ध से अग्रिम पिण्डों को विभक्त कर  लब्धि से रहित ज्याखण्डों को ज्यार्ध में जोड़ने से अग्रिम ज्यापिण्ड होता है। इसी प्रकार क्रम से 24 ज्यार्ध पिण्डों के मान होते हैं।

प्रथम ज्यार्ध पिण्ड का मान 225, द्वितीय का मान (225 + 225 - 225 / 225) 449, तृतीय का मान (449 + 224 - 449 / 225) 671, चौथे का मान (671 + 222 - 671 / 225) 890, पाँचवें का मान (890 + 219 - 890 / 225) 1105, छठे का मान (1105 + 215 - 1105 / 225) 1315 होता है।

सातवें ज्यार्ध पिण्ड का मान (1315 + 210 - 1315 / 225) 1520, आठवें का मान (1520 + 205 - 1520 / 225)1719, नवें का मान (1719 + 199 - 1719 / 225) 1910, दसवें का मान (1910 + 191 - 1910 / 225) 2093 होता है।

ग्यारहवें ज्यार्ध पिण्ड का मान (2093 + 183 - 2093 / 225) 2267, बारहवें का मान (2267 + 174 - 2267 / 225) 2431, तेरहवें का मान (2431 + 164 - 2431 / 225) 2585, चौदहवें का मान (2585 + 154 - 2585 / 225) 2728 होता है।

पन्द्रहवें ज्यार्ध पिण्ड का मान (2728 + 143 - 2728 / 225) 2859, सोलहवें का मान (2859 + 131 - 2859 / 225) 2978, सत्रहवें का मान (2978 + 119 - 2978 / 225) 3084, अठारहवें मान का (3084 + 106 - 3084 / 225) 3177 होता है।

उन्नीसवें ज्यार्ध पिण्ड का मान (3177 + 93 - 3177 / 225) 3256, बीसवें का मान 3256 + 79 - 3256 / 225) 3321, इक्कीसवें का मान 3321 + 65 - 3321 / 225) 3372, बाईसवें का मान (3372 + 51 - 3372 / 225) 3409 होता है।

तेईसवें ज्यार्ध पिण्ड का मान (3409 + 37 - 3409 / 225) 3431 एवं चौबीसवें का मान (3431 + 36 - 3431 / 225) 3438 (त्रिज्या तुल्य) होता है। उत्क्रम (विपरीत क्रम से) ज्यार्ध पिण्डों को व्यासार्ध (3438) से घटाने पर 24 उत्क्रमज्याओं के मान ज्ञात हो जाते हैं।

प्रथम उत्क्रमज्या का मान त्रिज्या (3438) - (24 - 1)वां ज्यार्धपिण्ड (3431) = 7, द्वितीय उत्क्रमज्या का मान 3438 - (24 - 2)वां ज्यार्धपिण्ड (3409) = 29, तीसरी उत्क्रमज्या का मान 66, चौथी उत्क्रमज्या का मान 117, पाँचवीं उत्क्रमज्या का मान 182, छठी उत्क्रमज्या का मान 261, सातवीं उत्क्रमज्या का मान 354 होता है।

आठवीं उत्क्रमज्या का मान 460, नवीं उत्क्रमज्या का मान 579, दसवीं उत्क्रमज्या का मान 710, ग्यारहवीं उत्क्रमज्या का मान 853, बारहवीं उत्क्रमज्या का मान 1007, तेरहवीं उत्क्रमज्या का मान 1171 होता है।

चौदहवीं उत्क्रमज्या का मान 1345, पंद्रहवीं उत्क्रमज्या का मान 1528, सोलहवीं उत्क्रमज्या का मान 1719, सत्रहवीं उत्क्रमज्या का मान 1918 होता है।

अठारहवीं उत्क्रमज्या का मान 2123, उन्नीसवीं उत्क्रमज्या का मान 2333, बीसवीं उत्क्रमज्या का मान 2548, इक्कीसवीं उत्क्रमज्या का मान 2767 होता है।

बाईसवीं उत्क्रमज्या का मान 2989, तेईसवीं उत्क्रमज्या का मान 3213 एवं चौबीसवीं उत्क्रमज्या का मान 3438 (त्रिज्या तुल्य) होता है।

परमक्रान्तिज्या (3438 sin ϵ)  का मान 1317 कला होता है। परमक्रान्तिज्या से इष्टज्या (3438 sin l) को गुणाकर गुणनफल में त्रिज्या (3438) से भाग देने से लब्धि इष्ट क्रान्तिज्या (3438 sin δ  होती है इसका चाप मान (arcsin) इष्टक्रान्ति (δ) होती है।

अहर्गणोत्पन्न मध्यम ग्रह को अपने अपने मन्दोच्च एवं शीघ्रोच्च से घटाने पर शेष क्रमशः मन्द केन्द्र और शीघ्र केन्द्र होते हैं। केन्द्र से पदज्ञान तथा पद से भुज और कोटि का ज्ञान किया जाता है।

विषम पद में गत चाप की जीवा भुजज्या तथा गम्य चाप की जीवा कोटि संज्ञक होती है। सम पद में (विपरीत) गम्य चाप की जीवा भुजज्या तथा गत चाप की जीवा कोटिज्या होती है।

जिस चाप की ज्या अभीष्ट हो, उस चाप की कला को 225 से भाग देने पर लब्धि गत ज्यापिण्ड होता है। शेष को ऐष्य (अग्रिम) ज्यापिण्ड और गत ज्यापिण्ड के अन्तर से गुणा कर गुणनफल को 225 से भाग दें।

इस प्रकार प्राप्त लब्धि को गत ज्यापिण्ड में जोड़ने से अभीष्ट चाप की ज्या होगी। यही ज्या साधन की विधि है तथा इसी प्रकार उत्क्रमज्या का भी साधन किया जाता है।

इष्टज्या से जितनी ज्या घट सके उन्हें घटाकर शेष को 225 से गुणाकर उसमें दोनों (गत और गम्य) ज्या के अन्तर से भाग देने पर प्राप्त लब्धि को शुद्ध ज्या संख्या और 225 के गुणनफल में जोड़ देने पर अभीष्ट चाप का मान हो जायेगा।

सम पदान्त में सूर्य का 14 एवं चन्द्रमा का 32 अंश मन्द परिध्यंश होता है। विषम पद में इससे 20 कला कम मन्द परिध्यंश होता है। अर्थात् विषम पद में सूर्य का 13 अंश 40 कला एवं चन्द्रमा का 31 अंश 40 कला मन्द परिध्यंश होगा।

भौमादि पाँच ग्रहों के क्रम से समपदान्त में 75, 30, 33, 12, 49 अंश मन्द परिध्यंश होते हैं तथा विषम पदान्त में क्रम से 72, 28, 32, 11 एवं 48 अंश मन्द परिध्यंश होते हैं।

समपदान्त में भौमादि ग्रहों के शीघ्र परिध्यंश क्रम से 235, 133, 70, 262, 39 अंश होते हैं।

विषम पदान्त में शीघ्र परिध्यंश क्रमशः 232, 132, 72, 260, 40 अंश होते हैं।

विषम और समपदान्त की मन्द अथवा शीघ्र परिधियों के अन्तर को मन्दकेन्द्र या शीघ्रकेन्द्र की भुजज्या से गुणाकर त्रिज्या से भाग देने पर प्राप्त लब्धि को समपदान्त परिधि में धन ऋण करने से स्फुट परिधि होती है। यदि केन्द्र समपदान्त में हो और विषमपदान्त की परिधि से समपदान्त की परिधि अल्प हो तो लब्ध फल का समपदान्त परिधि में धन संस्कार और इसके विपरीत ऋण संस्कार होगा।

इष्ट स्थानीय स्पष्ट परिधि से मन्दकेन्द्र भुजज्या को तथा केन्द्र कोटिज्या को गुणा कर भगणांश (360) से भाग देने पर क्रम से भुजफल एवं कोटिफल सिद्ध होंगे। भुजफल के चाप का कलादि मान मन्दफल होता है।

मकरादि छ राशियों (270 से 90 अंश) में यदि शीघ्रकेन्द्र हो तो शीघ्रकोटिफल का त्रिज्या में धन संस्कार करने से तथा कर्कादि छ राशियों (90 से 270 अंश) में शीघ्रकेन्द्र हो तो शीघ्रकोटिफल का त्रिज्या में ऋण संस्कार करने से स्पष्ट शीघ्रकोटि होती है।

शीघ्र भुजफल और शीघ्र कोटिफल के वर्ग योग का वर्गमूल स्फुट शीघ्रकर्ण होता है। भुजफल को त्रिज्या से गुणाकर चलकर्ण (शीघ्रकर्ण) से भाग दें।

इस प्रकार प्राप्त लब्धि का चाप कलादि शीघ्रफल होता है। यह शीघ्रफल भौमादि पञ्चताराग्रहों के प्रथम और चतुर्थ कर्म (संस्कार) में उपयोगी होता है।

सूर्य और चन्द्रमा को स्पष्ट करने के लिये केवल एक ही मन्दफल संस्कार किया जाता है। शेष भौमादि पञ्चतारा ग्रहों के लिये संस्कार विधि कह रहा हूँ। पहले शीघ्रफल पश्चात् मन्दफल पुनः मन्दफल फिर शीघ्रफल का संस्कार क्रम एवं अनुक्रम से करना चाहिये।

मध्यम ग्रह में पहले शीघ्रफल का आधा तदनन्तर मन्दफल का आधा तत्पश्चात् समग्र मन्दफल एवं समग्र शीघ्रफल का संस्कार किया जाता है।

सूर्यादि सभी ग्रहों के मन्द केन्द्र और शीघ्र केन्द्र मेषादि 6 राशियों में (0 से 180 अंश) हो तो मध्यम ग्रह में कलादि मन्दफल और शीघ्रफल का धन संस्कार तथा तुलादि केन्द्र (180 से 360 अंश) होने पर मध्यम ग्रह में ऋण संस्कार किया जाता है।

सूर्य के भुजफल (मन्दफल) को ग्रहगतिकला से गुणाकर गुणनफल को भचक्रकला (360 × 60 = 21600 कला) से भाग देने पर जो कलात्मक लब्धि हो उसे भुजान्तर कहते हैं। उसका संस्कार अभीष्ट ग्रह में सूर्य मन्दफल के अनुसार करना चाहिये।

चन्द्रमा की मन्दोच्च गति से चन्द्रमा की मध्यम गति घटाने से शेष केन्द्र गति होती है। चन्द्र केन्द्र गति से आगे कही गई विधि द्वारा (दोर्ज्यान्तर गुणा इत्यादि) चन्द्रगतिफल का साधन कर चन्द्रमा की मध्यम गति से आगे निर्दिष्ट विधि द्वारा धन-ऋण करने से चन्द्रमा की स्पष्टागति होती है। स्पष्ट ग्रहसाधन हेतु जिस प्रकार मन्दफल का साधन किया जाता है उसी प्रकार मन्दगतिफल का भी साधन करना चाहिये। चन्द्रगतिफल साधन में चन्द्रमा की मन्दकेन्द्रगति तथा अन्य ग्रहों की मध्यमा गति  को गत-गम्य भुजज्याओं के अन्तर से गुणा कर 225 से भाग देने पर जो लब्धि प्राप्त हो उसे मन्दपरिधि से गुणा कर भगणांश (360 अंश) से भाग देने पर प्राप्त कलादि लब्धि को कर्कादि केन्द्र होने पर (90 से 270 अंश) मध्यम गति में जोड़ने तथा मकरादि केन्द्र होने पर (270 से 90 अंश) मध्यम गति से घटाने पर ग्रहों की स्पष्टा गति होती है।





ग्रहों की मन्दस्पष्ट गति को अपनी-अपनी शीघ्रोच्चगति से घटाकर शेष को त्रिज्या और अन्त्य कर्ण के अन्तर [{(90 - शीघ्रफल) - फलकोज्या} ~ अन्त्य कर्ण = शेष] से गुणा कर चलकर्ण से भाग देने पर प्राप्त लब्धि शीघ्रगतिफल होती है।

शीघ्रकर्ण यदि त्रिज्या से अधिक हो तो फल धन और अल्प हो तो फल ऋण होता है। मन्दस्पष्ट गति में शीघ्रगतिफल का धन ऋण संस्कार करने से स्पष्ट गति होती है। यदि ऋण शीघ्रगतिफल मन्दस्पष्ट गति से अधिक हो तो शीघ्रगतिफल से मन्दस्पष्ट गति को घटाने पर जो शेष रहे वह ग्रह की वक्र गति होती है।

अपने शीघ्रोच्च से दूर (90 अंश से अधिक दूरी पर) स्थित होने पर शीघ्रोच्च रश्मियों के शिथिल हो जाने से अर्थात् शीघ्रोच्चजन्य आकर्षण शक्ति के शिथिल हो जाने पर ग्रह वाम भाग में (अन्य नीच स्थानीय आकर्षण शक्ति के प्रभाव से) आकृष्ट होकर वक्री हो जाते हैं।

भौमादि ग्रह अपने अपने चतुर्थ शीघ्रकेन्द्र से क्रमशः 164, 144, 130, 163 तथा 115 अंशों पर होते हैं तो इनका वक्रगतित्व आरम्भ होता है। उक्त शीघ्र केन्द्रांशो को चक्र (360 अंश) में घटाने से अवशिष्ट अंशों के तुल्य ग्रह होने पर ग्रह वक्र गति का त्याग करते हैं अर्थात् मार्गी हो जाते हैं।



मन्दपरिधि की अपेक्षा शीघ्रपरिधि के बड़ी होने से शुक्र और मंगल अपने केन्द्र से सातवीं राशि में, गुरु और बुध आठवीं राशि में, तथा शनि नवम राशि में अपना वक्रत्व त्याग देते हैं।

अहर्गणोत्पन्न भौम शनि और गुरु के पातों में ग्रहवत् शीघ्रफल का संस्कार करना चाहिये। बुध और शुक्र के पातों का तृतीय संस्कार अर्थात् मन्दफल का विपरीत संस्कार करना चाहिये।

भौमादि स्पष्ट ग्रहों व शुक्र-बुध के शीघ्रोच्चों को अपने अपने पातों से रहित कर शेष की जीवा (ज्या) को विक्षेप (शर) से गुणाकर अन्त्यकर्ण (शीघ्रकर्ण, चन्द्रमा के लिये त्रिज्या) से भाग देने से कलात्मक लब्धि क्रान्तिसंस्कार योग्य शर होता है।

विक्षेप (शर) और मध्यमक्रान्ति की एक ही दिशा हो तो विक्षेप और क्रान्ति का योग करने से स्पष्ट क्रान्ति होती है और भिन्न दिशा होने पर अन्तर स्पष्ट क्रान्ति होती है। सूर्य की गणितागत क्रान्ति ही स्फुट क्रान्ति होती है।

अभीष्ट ग्रह की स्पष्टगति को ग्रहनिष्ठ राश्युदयासुओं (सायन ग्रह जिस राशि पर हो उस राशि के उदयमान) से गुणा कर 1800 से भाग देने पर जो लब्धि प्राप्त हो उसे चक्रकला (21600) में जोड़ने पर अभीष्ट ग्रह के अहोरात्रासु होते हैं।

स्फुटक्रान्ति से ज्या (3438 sin δ  और उत्क्रमज्या (3438 - 3438 cos δ  दोनों का साधन कर त्रिज्या (3438) में से उत्क्रमज्या को घटाने से शेष (3438 cos δ  अहोरात्रवृत्त का व्यासार्द्ध होता है जिसे द्युज्या कहते हैं। यह व्यासार्द्ध दक्षिणक्रान्ति होने पर दक्षिणगोल का व उत्तरक्रान्ति होने पर उत्तरगोल का होता है।

क्रान्तिज्या (3438 sin δ  को पलभा (12 tan φ) से गुणा कर गुणनफल में 12 का भाग देने पर लब्धि (3438 sin δ tan φ) क्षितिज्या (कुज्या) होती है। इसे त्रिज्या (3438) से गुणाकर द्युज्या (3438 cos δ  से भाग देने पर लब्धि (3438 tan δ tan φ) चरज्या (3438 sin C) होती है और इसका चाप (arcsin) चर (C) संज्ञक होता है।

उक्त चरज्या को चापात्मक बनाने से चरासु होते हैं। उत्तर क्रान्ति होने पर चरासु को अहोरात्रासु के चतुर्थांश में जोड़ने से दिनार्ध तथा घटाने से रात्र्यर्ध काल होता है। दक्षिण क्रान्ति होने पर इसके विपरीत संस्कार किया जाता है।

दोनों को द्विगुणित करने पर क्रम से दिनमान और रात्रिमान होते हैं। इसी प्रकार विक्षेप को क्रान्ति में धन ऋण कर (चर साधन द्वारा) नक्षत्रों का दिन रात्रि मान ज्ञात करना चाहिये।

भभोग अर्थात् नक्षत्र का भोग (360 × 60 / 27 =) 800 कला तथा तिथि का भोग (360 × 60 / 30 =) 720 कला होता है। स्पष्ट ग्रह के राश्यादि मान की कला को नक्षत्रभोग 800 से भाग देने पर लब्धि गत नक्षत्र होता है। शेष कला से ग्रह गति द्वारा गतगम्य दिनादि का साधन करना चाहिये।

सूर्य और चन्द्रमा के योग की कलाओं को भभोग 800 से भाग देने पर लब्धि गत विष्कुम्भादि योग होते हैं। शेष को 60 से गुणा कर रवि चन्द्र के गति योग से भाग देने पर वर्तमान योग का गत-गम्य काल होता है।

सूर्य रहित चन्द्रमा की कला को तिथि भोग 720 से भाग देने पर लब्धि गत तिथि होती है। शेष को 60 से गुणा कर रवि-चन्द्र गत्यन्तर से भाग देने पर वर्तमान तिथि का गत-गम्य मान होता है।

कृष्णपक्ष की चतुर्दशी के उत्तरार्ध से क्रमशः शकुनि, चतुष्पद, नाग, तथा किंस्तुघ्न ये चार स्थिर करण होते हैं।

तदनन्तर बव आदि सात चर करण होते हैं। एक मास में बवादि करण आठ बार आते हैं।

प्रत्येक करण का भोगमान तिथ्यर्ध तुल्य होता है अर्थात् एक तिथि में दो करण होते हैं। इस प्रकार सूर्यादि ग्रहों की स्पष्ट गति कही गई है।

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